अपठित बोध
‘अपठित’ शब्द अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता का परख करना होता है।
अपठित गद्यांश
अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता है। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गद्यांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु, उसका स्तर, विषय वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है। प्रायः छात्रों को अपठित अंश कठिन लगता है और वे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते हैं। इसका कारण अभ्यास की कमी है। अपठित गद्यांश को बार-बार हल करने से-
अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें-
अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए-
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए
प्रश्न: 1.
आकाश गंगा को यह नाम क्यों मिला?
उत्तर:
आकाश में पृथ्वी से
देखने पर आकाशगंगा नदी की धारा की भाँति दिखाई देती है, इसलिए इसका नाम आकाशगंगा
पड़ा।
प्रश्न: 2.
पृथ्वी से कितनी आकाशगंगा दिखाई देती है? उनके नाम क्या
हैं?
उत्तर:
पृथ्वी से केवल एक आकाशगंगा दिखाई देती है। इसका नाम ‘स्पाइरल
गैलेक्सी’ है।
प्रश्न: 3.
आकाशगंगा में कितने तारे हैं ? उनमें सूर्य की स्थिति क्या
है?
उत्तर:
आकाशगंगा में लगभग बीस अरब तारे हैं, जिनमें अनेक सूर्य से भी
बड़े हैं। सूर्य इसी आकाशगंगा का एक सदस्य है जो इसके केंद्र से दूर इसकी एक भुजा
पर स्थित है।
प्रश्न: 4.
आकाशगंगा में उभार और मछली की भाँति भुजाएँ निकलती क्यों दिखाई
पड़ती हैं ?
उत्तर:
आकाशगंगा के केंद्र में तारों का जमावड़ा है। यही जमावड़ा
उभार की तरह दिखाई देता है। आकाशमंडल में अन्य तारे धूल और गैस के बादलों में समाए
हुए हैं। इनकी स्थिति देखने में मछली की भुजाओं की भाँति निकलती-सी प्रतीत होती
हैं।
प्रश्न: 5.
प्रकाश वर्ष क्या है ? गद्यांश में इसका उल्लेख क्यों किया गया
है?
उत्तर:
प्रकाशवर्ष लंबी दूरी मापने की इकाई है। एक प्रकाशवर्ष प्रकाश
द्वारा एक वर्ष में तय की गई दूरी होती है। गद्यांश में इसका उल्लेख आकाशगंगा की
विशालता बताने के लिए किया गया है, जिसकी लंबाई एक लाख प्रकाश वर्ष है।
उदाहरण ( उत्तर सहित)
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(1) गंगा भारत की एक अत्यन्त पवित्र नदी है जिसका जल काफ़ी दिनों तक रखने के बावजूद अशुद्ध नहीं होता जबकि साधारण जल कुछ दिनों में ही सड़ जाता है। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री या गोमुख है। गोमुख से भागीरथी नदी निकलती है और देवप्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा नदी से मिलकर आगे गंगा के रूप में प्रवाहित होती है। भागीरथी के देवप्रयाग तक आते-आते इसमें कुछ चट्टानें घुल जाती हैं जिससे इसके जल में ऐसी क्षमता पैदा हो जाती है जो उसके पानी को सड़ने नहीं देती।
हर नदी के जल में कुछ खास तरह के पदार्थ घुले रहते हैं जो उसकी विशिष्ट जैविक संरचना के लिए उत्तरदायी होते हैं। ये घुले हुए पदार्थ पानी में कुछ खास तरह के बैक्टीरिया को पनपने देते हैं तो कुछ को नहीं। कुछ खास तरह के बैक्टीरिया ही पानी की सड़न के लिए उत्तरदायी होते हैं तो कुछ पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को रोकने में सहायक होते हैं। वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि गंगा के पानी में भी ऐसे बैक्टीरिया हैं जो गंगा के पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को पनपने ही नहीं देते इसलिए गंगा का पानी काफ़ी लंबे समय तक खराब नहीं होता और पवित्र माना जाता है।
हमारा मन भी गंगा के पानी की तरह ही होना चाहिए तभी वह निर्मल माना जाएगा। जिस प्रकार पानी को सड़ने से रोकने के लिए उसमें उपयोगी बैक्टीरिया की उपस्थिति अनिवार्य है उसी प्रकार मन में विचारों के प्रदूषण को रोकने के लिए सकारात्मक विचारों के निरंतर प्रवाह की भी आवश्यकता है। हम अपने मन को सकारात्मक विचार रूपी बैक्टीरिया द्वारा आप्लावित करके ही गलत विचारों को प्रविष्ट होने से रोक सकते हैं। जब भी कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न हो सकारात्मक विचार द्वारा उसे समाप्त कर दीजिए।
प्रश्नः (क)
गंगा के जल और साधारण पानी में क्या अंतर है?
उत्तर:
गंगा
का जल पवित्र माना जाता है। यह काफी दिनों तक रखने के बाद भी अशुद्ध नहीं होता है।
इसके विपरीत साधारण जल कुछ ही दिन में खराब हो जाता है।
प्रश्नः (ख)
गंगा के उद्गम स्थल को किस नाम से जाना जाता है? इस नदी को गंगा
नाम कैसे मिलता है?
उत्तर:
गंगा के उद्गम स्थल को गंगोत्री या गोमुख के नाम
से जाना जाता है। वहाँ यह भागीरथी नाम से निकलती है। देवप्रयाग मेंयह अलकनंदा से
मिलती है तब इसे गंगा नाम मिलता है।
प्रश्नः (ग)
भागीरथी से देव प्रयाग तक का सफ़र गंगा के लिए किस तरह लाभदायी
सिद्ध होता है?
उत्तर:
भागीरथी से देवप्रयाग तक गंगा विभिन्न पहाड़ों के बीच
बहती है जिससे इसमें कुछ चट्टानें धुल जाती हैं। इससे गंगा का जल दीर्घ काल तक
सड़ने से बचा रहता है। इस तरह यह सफ़र गंगा के लिए लाभदायी सिद्ध होता है।
प्रश्नः (घ)
बैक्टीरिया ही पानी में सड़न पैदा करते हैं और बैक्टीरिया ही
पानी की सड़न रोकते हैं, कैसे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुछ खास किस्म के
बैक्टीरिया ऐसे होते हैं जो पानी में सड़न पैदा करते हैं और कुछ बैक्टीरिया इन
बैक्टीरिया को रोकने का काम करते हैं। गंगा के पानी में सड़न रोकने वाले बैक्टीरिया
इनको पनपने से रोककर पानी सड़ने से बचाते हैं।
प्रश्नः (ङ)
मन को निर्मल रखने के लिए क्या उपाय बताया गया
है?
उत्तर:
मन को निर्मल रखने के लिए विचारों का प्रदूषण रोकना चाहिए। इसके
लिए मन में सकारात्मक विचार प्रवाहित होना चाहिए। मन में नकारात्मक विचार आते ही
उसे सकारात्मक विचारों द्वारा नष्ट कर देना चाहिए।
(2) वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महा नेता और युग-द्रष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार को युग-युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की।
वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी की फटी रह गईं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया।
प्रश्नः (क)
आज संत-साहित्य को उपयोगी क्यों माना गया है?
उत्तर:
आज
संत साहित्य को इसलिए उपयोगी माना जाता है क्योंकि संतों के साहित्य में विचारों की
भव्यता, हृदय की तन्मयता और धार्मिक उदारता है जो आज के सांप्रदायिक संकीर्णता के
विषम वातावरण में अत्यंत उपयोगी है।
प्रश्नः (ख)
संत-शिरोमणि किसे माना गया है और क्यों?
उत्तर:
संत
शिरोमणि कबीर को माना गया है क्योंकि वे किसी धर्म के कट्टर समर्थक न होकर सभी
धर्मों के प्रति समान आदर भाव रखते थे। वे भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष थे
जो धार्मिक भेदभाव से कोसों दूर रहते थे।
प्रश्नः (ग)
कबीर के व्यक्तित्व एवं काव्य की क्या विशेषता
थी?
उत्तर:
कबीर के व्यक्तित्व की विशेषता थी सत्य का समर्थन, हृदय में अगाध
विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति। उनकी काव्य रचना की विशेषता थी- लोक
कल्याण की कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-सृजन। इससे कबीर को खूब
प्रसिद्धि मिली।
प्रश्नः (घ)
सामान्य जनता कबीर की वाणी को मानने को क्यों बाध्य हो
गई?
उत्तर:
कबीर की वाणी में अभूतपूर्व शक्ति थी। वे सत्य, प्रेम, ईश्वर
विश्वास, अहिंसा धर्मनिरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ा रहे थे। वे समाज में फैले
मिथ्याचारों और कुत्सित विचारों पर कड़ा प्रहार कर रहे थे। यह देख सामान्य जनता
उनकी वाणी मानने को बाध्य हो गई।
प्रश्नः (ङ)
अपने जीवन के माध्यम से कबीर ने किन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत
किया?
उत्तर:
कबीर ने अपने जीवन के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियाँ,
धार्मिक कट्टरता मिथ्याचार, वाह्याडंबर, ढकोसलों के अलावा देश की धार्मिक, सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया।
(3) सुखी, सफल और उत्तम जीवन जीने के लिए किए गए आचरण और प्रयत्नों का नाम ही धर्म है। देश, काल और सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से संसार में भारी विविधता है, अतएव अपने-अपने ढंग से जीवन को पूर्णता की ओर ले जाने वाले विविध धर्मों के बीच भी ऊपर से विविधता दिखाई देती है। आदमी का स्वभाव है कि वह अपने ही विचारों और जीने के तौरतरीकों को तथा अपनी भाषा और खानपान को सर्वश्रेष्ठ मानता है तथा चाहता है कि लोग उसी का अनुसरण और अनुकरण करें, अतएव दूसरों से अपने धर्म को श्रेष्ठतर समझते हुए वह चाहता है कि सभी लोग उसे अपनाएँ। इसके लिए वह ज़ोरज़बर्दस्ती को भी बुरा नहीं समझता।
धर्म के नाम पर होने वाले जातिगत विद्वेष, मारकाट और हिंसा के पीछे मनुष्य की यही स्वार्थ-भावना काम करती है। सोच कर देखिए कि आदमी का यह दृष्टिकोण कितना सीमित, स्वार्थपूर्ण और गलत है। सभी धर्म अपनी-अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के आधार पर पैदा होते, पनपते और बढ़ते हैं, अतएव उनका बाह्य स्वरूप भिन्न-भिन्न होना आवश्यक और स्वाभाविक है, पर सबके भीतर मनुष्य की कल्याण-कामना है, मानव-प्रेम है। यह प्रेम यदि सच्चा है, तो यह बाँधता और सिकोड़ता नहीं, बल्कि हमारे हृदय और दृष्टिकोण का विस्तार करता अपठित गद्यांश है, वह हमें दूसरे लोगों के साथ नहीं, समस्त जीवन-जगत के साथ स्पष्ट है कि ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाले सभी धर्म अपने मूल में मानव-कल्याण की एक ही मूलधारा को लेकर चले और चल रहे हैं।
हम सभी इस सच्चाई को जानकर भी जब धार्मिक विदवेष की आँधी में बहते हैं, तो कितने दुर्भाग्य की बात है! उस समय हमें लगता है कि चिंतन और विकास के इस दौर में आ पहुँचने पर भी मनुष्य को उस जंगली-हिंसक अवस्था में लौटने में कुछ भी समय नहीं लगता; अतएव उसे निरंतर यह याद दिलाना होगा कि धर्म मानव-संबंधों को तोड़ता नहीं, जोड़ता है इसकी सार्थकता प्रेम में ही है।
प्रश्नः (क)
गदयांश के आधार पर बताइए कि धर्म क्या है और इसकी मुख्य विशेषता
क्या है?
उत्तर:
धर्म मनुष्य द्वारा किए उन आवरण और प्रयत्नों का नाम है
जिन्हें वह अपना जीवन सफल, सुखी एवं उत्तम बनाने के लिए करता है। धर्म की मुख्य
विशेषता इसकी विविधता है।
प्रश्नः (ख)
विविध धर्मों के बीच विविध प्रकार की मान्यताओं के क्या कारण
हैं? इन विविधताओं के बावजूद मनुष्य क्यों चाहता है कि लोग उसी की धार्मिक
मान्यताओं को अपनाएँ? ।
उत्तर:
विविध धर्मों के बीच विविध प्रकार की
मान्यताओं का कारण मनुष्य के द्वारा जीवन जीने का ढंग है। वह अपने विचार, जीवन जीने
के तरीके, भाषा, खानपान आदि को श्रेष्ठ मानता है, इसलिए वह चाहता है कि लोग उसी की
धार्मिक मान्यताएँ अपनाएँ।
प्रश्नः (ग)
अपनी धार्मिक मान्यताएँ दूसरों पर थोपना क्यों हितकर नहीं
होता?
उत्तर:
अपनी धार्मिक मान्यताओं को अच्छा समझते हुए व्यक्ति इन्हें
दूसरों पर थोपना चाहता है। इसके लिए वह ज़ोर-जबरदस्ती का सहारा लेता है। इससे जातीय
विद्वेष, मारकाट और हिंसा फैलती है जो हितकारी नहीं होती।
प्रश्नः (घ)
धर्मों के बाह्य स्वरूप में भिन्नता होना क्यों स्वाभाविक है?
धर्म का मूल लक्ष्य क्या होना चाहिए?
उत्तर:
धर्मों के पैदा होने, पनपने
फलने-फूलने की भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं। अत:
उनके बाह्य स्वरूप में भिन्नता होना स्वाभाविक है। धर्म का मूल लक्ष्य मानव कल्याण
होना चाहिए।
प्रश्नः (ङ)
गद्यांश के आधार पर बताइए कि धर्म की मूल भावना क्या है? वह अपनी
मूल भावना को कैसे बनाए हुए हैं?
उत्तर:
गद्यांश से ज्ञात होता है कि धर्म की
मूल भावना है- हृदय और दृष्टिकोण का विस्तार करते हुए मानव कल्याण करना तथा इसे
समस्त जीवन जगत के साथ जोड़ना। ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाले धर्म अपने मूल में
मानव कल्याण का लक्ष्य अपने में समाए हुए हैं।
4 धरती का स्वर्ग श्रीनगर का ‘अस्तित्व’ डल झील मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ जलचरों, परिंदों का घरौंदा हुआ करती थी। झील से हज़ारों हाथों को काम और लाखों को रोटी मिलती थी। अपने जीवन की थकान, मायूसी और एकाकीपन को दूर करने, देश-विदेश के लोग इसे देखने आते थे।
यह झील केवल पानी का एक स्रोत नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है, मगर विडंबना है कि स्थानीय लोग इसको लेकर बहुत उदासीन हैं।
समुद्र-तल से पंद्रह सौ मीटर की ऊँचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हज़ार साल पुरानी है। श्रीनगर शहर के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यह जल-निधि पहाडों के बीच विकसित हई थी। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि 1200 में इस झील का फैलाव पचहत्तर वर्ग किलोमीटर में था। 1847 में इसका क्षेत्रफल अड़तालीस वर्ग किमी आँका गया। 1983 में हुए माप-जोख में यह महज साढ़े दस वर्ग किमी रह गई। अब इसमें जल का फैलाव आठ वर्ग किमी रह गया है। इन दिनों सारी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का शोर है और लोग बेखबर हैं कि इसकी मार इस झील पर भी पड़ने वाली है।
इसका सिकुड़ना इसी तरह जारी रहा तो इसका अस्तित्व केवल तीन सौ पचास साल रह सकता है।
इसके पानी के बड़े हिस्से पर अब हरियाली है। झील में हो रही खेती और तैरते बगीचे इसे जहरीला बना रहे हैं। सागसब्जियों में अंधाधुंध रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाएँ डाली जा रही हैं, जिससे एक तो पानी दूषित हो गया, साथ ही झील में रहने वाले जलचरों की कई प्रजातियाँ समूल नष्ट हो गईं।
आज इसका प्रदूषण उस स्तर तक पहुँच गया है कि कुछ वर्षों में ढूँढ़ने पर भी इसका समाधान नहीं मिलेगा। इस झील के बिना श्रीनगर की पहचान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह भी तय है कि आम लोगों को झील के बारे में संवेदनशील और भागीदार बनाए बगैर इसे बचाने की कोई भी योजना सार्थक नहीं हो सकती है।
प्रश्नः (क)
डल झील को स्थानीय लोगों की जीवन रेखा क्यों कहा गया
है?
उत्तर:
डल झील को स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा इसलिए कहा गया है क्योंकि
इस झील के सहारे चलने वाले अनेक कारोबार से लोगों को काम मिलता है और वे इसी के
सहारे रोटी-रोजी कमाते हैं।
प्रश्नः (ख)
सरकारी रिकॉर्ड झील के सिकुड़ने की गवाही किस प्रकार देते हैं
?
उत्तर:
डल झील का फैलाव सन् 1200 में 75 वर्ग किमी में था। 1847 में इसका
क्षेत्रफल 48 वर्ग किमी और 1983 में इसका क्षेत्रफल मात्र 10 वर्ग किमी बचा है। अब
इसमें मात्र 8 वर्ग किमी पर पानी बचा है। इस तरह सरकारी रिकॉर्ड झील के सिकुड़ने की
गवाही देते हैं।
प्रश्नः (ग)
ग्लोबल वार्मिंग क्या है? इसका झील पर क्या असर हो रहा
है?
उत्तर:
पिछले कुछ वर्षों से धरती के औसत तापमान में लगातार वृद्धि हो रही
है। इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। धरती की गरमी बढ़ती जाने से जलाशय सूखते जा
रहे हैं। इससे डल झील सूखकर सिकुड़ती जा रही है। यह डल झील के अस्तित्व के लिए खतरा
है।
प्रश्नः (घ)
डल झील की खेती और बगीचे इसके सौंदर्य पर ग्रहण लगा रहे हैं,
कैसे?
उत्तर:
डल झील पर तैरती खेती की जाती है और बगीचे उगाए जाते हैं। इससे
अधिक से अधिक फ़सलें और फल पाने के लिए __ अंधाधुंध रासायनिक खादें और कीटनाशक डाले
जा रहे हैं। इससे झील का पानी प्रदूषित हो रहा है और झील के जलचर मर रहे हैं। इस
तरह यहाँ की जाने वाली खेती और बगीचे इसके सौंदर्य पर ग्रहण हैं।
प्रश्नः (ङ)
झील पर प्रदूषण का क्या असर होगा? इसके रोकने के लिए क्या किया
जाना चाहिए?
उत्तर:
झील पर बढ़ते प्रदूषण का असर यह होगा कि इसका हल खोजना
कठिन हो जाएगा। इसके दूषित पानी में रहने वाले जलचर समूल नष्ट हो जाएंगे। इसे रोकने
के लिए ऐसे उपाय करने होंगे जिनमें आम लोगों को शामिल करके उन्हें संवेदनशील बनाया
जाए और उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
(5) अच्छा नागरिक बनने के लिए भारत के प्राचीन विचारकों ने कुछ नियमों का प्रावधान किया है। इन नियमों में वाणी और व्यवहार की शुद्धि, कर्तव्य और अधिकार का समुचित निर्वाह, शुद्धतम पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और सेवा की भावना आदि नियम बहुत महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। ये सभी नियम यदि एक व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के रूप में भी अनिवार्य माने जाएँ तो उसका अपना जीवन भी सुखी और आनंदमय हो सकता है। इन सभी गुणों का विकास एक बालक में यदि उसकी बाल्यावस्था से ही किया जाए तो वह अपने देश का श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। इन गुणों के कारण वह अपने परिवार, आस-पड़ोस, विद्यालय में अपने सहपाठियों एवं अध्यापकों के प्रति यथोचित व्यवहार कर सकेगा।
वाणी एवं व्यवहार की मधुरता सभी के लिए सुखदायी होती है, समाज में हार्दिक सद्भाव की वृद्धि करती है किंतु अहंकारहीन व्यक्ति ही स्निग्ध वाणी और शिष्ट व्यवहार का प्रयोग कर सकता है। अहंकारी और दंभी व्यक्ति सदा अशिष्ट वाणी और व्यवहार का अभ्यास होता है। जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे आदमी के व्यवहार से समाज में शांति और सौहार्द का वातावरण नहीं बनता।
जिस प्रकार एक व्यक्ति समाज में रहकर अपने व्यवहार से कर्तव्य और अधिकार के प्रति सजग रहता है, उसी तरह देश के प्रति भी उसका व्यवहार कर्तव्य और अधिकार की भावना से भावित रहना चाहिए। उसका कर्तव्य हो जाता है कि न तो वह स्वयं कोई ऐसा काम करे और न ही दूसरों को करने दे, जिससे देश के सम्मान, संपत्ति और स्वाभिमान को ठेस लगे। समाज एवं देश में शांति बनाए रखने के लिए धार्मिक सहिष्णुता भी बहुत आवश्यक है। यह वृत्ति अभी आ सकती है जब व्यक्ति संतुलित व्यक्तित्व का हो।
प्रश्नः (क)
समाज एवं राष्ट्र के हित में नागरिक के लिए कैसे गुणों की
अपेक्षा की जाती है?
उत्तर:
समाज एवं राष्ट्र के हित में नागरिक के लिए वाणी
और व्यवहार की शुद्धि, कर्तव्य और अधिकार का समुचित निर्वाह, पारस्परिक सद्भाव,
सहयोग और सेवा की भावना जैसे गुणों की अपेक्षा की जाती है।
प्रश्नः (ख)
चारित्रिक गुण किसी व्यक्ति के निजी जीवन में किस प्रकार उपयोगी
हो सकते हैं?
उत्तर:
चारित्रिक गुणों से किसी व्यक्ति का निजी जीवन सुखी एवं
आनंद मय बन जाता है। वह अपने परिवार, आस-पड़ोस और मिलने-जुलने वालों से यथोचित
व्यवहार कर सकता है।
प्रश्नः (ग)
वाणी और व्यवहार की मधुरता सबके लिए सुखदायक क्यों मानी गई
है?
उत्तर:
वाणी और व्यवहार की मधुरता सबके लिए सुखदायक मानी जाती है क्योंकि
इससे समाज में हार्दिक सद्भाव में वृद्धि होती है। वह सबका प्रिय और सबके आदर का
पात्र बन जाता है।
प्रश्नः (घ)
मधुर वाणी और शिष्ट व्यवहार कौन कर सकता है, कौन नहीं और
क्यों?
उत्तर:
मधुर वाणी और शिष्ट व्यवहार का प्रयोग अहंकारहीन व्यक्ति ही कर
सकता है, अहंकारी और दंभी व्यक्ति नहीं क्योंकि ऐसा व्यक्ति सदा अशिष्ट वाणी और
व्यवहार को अभ्यासी होती है।
प्रश्नः (ङ)
देश के प्रति व्यक्ति का व्यवहार और कर्तव्य कैसा होना चाहिए?
अपठित गद्यांश
उत्तर:
देश के प्रति व्यक्ति का व्यवहार कर्तव्य और अधिकार की
भावना से भावित होना चाहिए। ऐसे में व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह कोई
ऐसा कार्य न करे और न दूसरों को करने दे, जो देश के सम्मान, संपत्ति और स्वाभिमान
की भावनाको ठेस पहुँचाए।
(6) गत कुछ वर्षों में जिस तरह मोबाइल फ़ोन-उपभोक्ताओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, उसी अनुपात में सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह-जगह टावर खड़े कर दिए हैं। इसमें यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि जिन रिहाइशी इलाकों में टावर लगाए जा रहे हैं, वहाँ रहने वाले और दूसरे जीवों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। मोबाइल टावरों से होने वाले विकिरण से मनुष्य और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर के मद्देनज़र विभिन्न-अदालतों में याचिकाएं दायर की गई हैं। शायद यही वजह है कि सरकार को इस दिशा में पहल करनी पड़ी। केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार टावर लगाने वाली कंपनियों को अपने मौजूदा रेडियो फ्रिक्वेंसी क्षेत्र में दस फीसदी की कटौती करनी होगी।
मोबाइल टावरों के विकरण से होने वाली कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का मुद्दा देशभर में लोगों की चिंता का कारण बना हुआ है। पिछले कुछ महीनों में आम नागरिकों और आवासीय कल्याण-संगठनों ने न सिर्फ रिहाइशी इलाकों में नए टावर लगाने का विरोध किया, बल्कि मौजूदा टावरों पर भी सवाल उठाए हैं। अब तक कई अध्ययनों में ऐसी आशंकाएँ व्यक्त की जा चुकी हैं कि मोबाइल टावरों से निकलने वाली रेडियो तरंगें न केवल पशु-पक्षियों, बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी कई रूपों में हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से कराए एक अध्ययन की रिपोर्ट में तथ्य सामने आए कि गौरैयों और मधुमक्खियों की तेज़ी से घटती संख्या के लिए बड़े पैमाने पर लगाए जा रहे मोबाइल टावरों से निकलने वाली विद्युत्-चुंबकीय तरंगें कारण हैं।
इन पर हुए अध्ययनों में पाया गया है कि मोबाइल टावर के पाँच सौ मीटर की सीमा में रहने वाले लोग अनिद्रा, सिरदर्द, थकान, शारीरिक कमजोरी और त्वचा रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं, जबकि कुछ लोगों में चिड़चिड़ापन और घबराहट बढ़ जाती है। फिर मोबाइल टावरों की रेडियो फ्रिक्वेंसी तरंगों को मनुष्य के लिए पूरी तरह सुरक्षित मान लेने का क्या आधार हो सकता है? टावर लगाते समय मोबाइल कंपनियाँ तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखने से नहीं हिचकतीं। इसलिए चुंबकीय तरंगों में कमी लाने के साथ-साथ, टावर लगाते समय नियमों की अनदेखी पर नकेल कसने की आवश्यकता है।
प्रश्नः (क)
मोबाइल फ़ोन सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह-जगह टावर क्यों लगाए?
उन्होंने किस बात की अनदेखी की?
उत्तर
पिछले कुछ वर्षों में मोबाइल फ़ोन
उपभोक्ताओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। उन्हें सेवाएं प्रदान करने के
लिए मोबाइल कंपनियों ने टावर लगाए हैं। अपने लाभ के लिए उन्होंने उन क्षेत्रों में
रहने वाले लोगों और अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य संबंधी खतरे की अनदेखी की।
प्रश्नः (ख)
सरकार द्वारा पहल करने का क्या कारण था? उसने क्या निर्देश
दिए?
उत्तर:
सरकार द्वारा मोबाइल कंपनियों के विरुद्ध पहल करने का कारण था,
लोगों और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव संबंधी याचिकाएँ जो
अदालतों में विचाराधीन थीं। इस संबंध में सरकार ने कंपनियों को मौजूदा रेडियो
फ्रीक्वेंसी क्षेत्र में दस प्रतिशत कटौती का निर्देश दिया।
प्रश्नः (ग)
मोबाइल टावरों के प्रति लोगों की क्या प्रतिक्रिया हुई और
क्यों?
उत्तर:
मोबाइल टावरों के प्रति लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए
इन्हें रिहायशी इलाकों में लगाने का विरोध किया और उनकी मौजूदगी पर सवाल उठाया।
इसका कारण यह था कि इनसे निकलने वाली तरंगें मनुष्य तथा पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य
पर बुरा असर डालती हैं।
प्रश्नः (घ)
मोबाइल टावर हमारे पर्यावरण के लिए कितने हानिकारी हैं ? उदाहरण
द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मोबाइल टावर हमारे पर्यावरण के लिए भी बहुत
हानिकारक हैं। इनसे निकलने वाली किरणों के कारण गौरैया और मधुमक्खियों की संख्या
में निरंतर कमी आती जा रही है। इस कारण हमारे पर्यावरण का सौंदर्य कम हुआ है तथा
प्रदूषण में वृद्धि हुई है।
प्रश्नः (ङ)
मोबाइल टावरों को सेहत के लिए सुरक्षित क्यों नहीं माना जा सकता
है?
उत्तर:
मोबाइल टावरों को सेहत के लिए इसलिए सुरक्षित नहीं माना जा सकता
है, क्योंकि
(7) साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्य को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीवन का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।
साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, पर वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, जिंदगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता।
जिंदगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम को झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अंततः अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिंदगी का कोई मज़ा उसे नहीं मिल पाता, क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने जिंदगी को ही आने से रोक रखा है। ज़िन्दगी से, अंत में हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं।
प्रश्नः (क)
साहस की जिंदगी जीने वालों की उन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए
जिनके कारण वे दूसरों से अलग नज़र आते हैं।
उत्तर:
साहस की जिंदगी जीने वाले
निडर और बेखौफ़ होकर जीते हैं। वे इस बात की चिंता नहीं करते है कि जनमानस उनके
बारे में क्या सोचता है। ये विशेषताएँ उन्हें दूसरों से अलग करती हैं।
प्रश्नः (ख)
गद्यांश के आधार पर क्रांति करने वालों तथा जन साधारण में अंतर
लिखिए।
उत्तर:
क्रांति करने वालों का उद्देश्य बिल्कुल ही अलग होता है। वे
अपने उद्देश्य की तुलना पड़ोसी से नहीं करते है और पड़ोसी की चाल देखकर अपनी चाल को
कम या ज्यादा नहीं करते हैं। इसके विपरीत जनसाधारण का लक्ष्य और अपने पड़ोसियों
जैसा होता है।
प्रश्नः (ग)
‘साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता है’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता है’ का आशय है कि जो साहसी होते हैं
वे अपने जीवन का लक्ष्य एवं उसे पूरा करने का मार्ग स्वयं चुनते हैं। वे दूसरे के
लक्ष्य और रास्तों की नकल नहीं करते हैं।
प्रश्नः (घ)
‘अर्नाल्ड बेनेट’ के अनुसार सुखी होने के लिए क्या-क्या आवश्यक
है?
उत्तर:
अर्नाल्ड बेनेट के अनुसार सुखी होने के लिए-
प्रश्नः (ङ)
जोखिम पर हर जगह घेरा डालने वाला आदमी जिंदगी का मज़ा क्यों नहीं
ले सकता?
उत्तर:
जोखिम पर हर जगह घेरा डालने वाला व्यक्ति जिंदगी का असली मजा
इसलिए नहीं ले सकता क्योंकि जोखिम से बचने के प्रयास में वह जिंदगी को अपने पास आने
ही नहीं देता है। इस तरह वह जिंदगी के आनंद से वंचित रह जाता है।
(8) कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।
इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक बनते। बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं।
एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसे लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अतः तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें। सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्रबल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी।
पीहे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है। तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो।
प्रश्नः (क)
कुसंगति की तुलना किससे की गई है और क्यों?
उत्तर:
कुसंगति
की तुलना किसी व्यक्ति के पैरों में बँधी चक्की से की गई है क्योंकि इससे व्यक्ति
आगे अर्थात् उन्नति की ओर नहीं बढ़ पाता है। इससे व्यक्ति अवनति के गड्ढे में गिरता
चला जाता है।
प्रश्नः (ख)
राज-दरबारियों के बीच जगह न मिलने पर भी विद्वान दुखी क्यों नहीं
हुआ?
उत्तर:
राजदरबारियों के बीच जगह न मिलने पर विद्वान इसलिए दुखी नहीं हुआ
क्योंकि वहाँ वह ऐसे लोगों की कुसंगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में
बाधक होते।
प्रश्नः (ग)
बुरी बाते चित्त में जल्दी जगह बनाती हैं। इसके लिए लेखक ने क्या
दृष्टांत दिया है?
उत्तर:
बुरी बातें चित्त में जल्दी बैठती हैं और बहुत
दिनों तक हमारे चित्त में टिकती हैं। इसे बताने के लिए लेखक ने आजकल के फूहड़ गानों
का उदाहरण दिया है जो सरलता से हमारे दिमाग में चढ़ जाते हैं।
प्रश्नः (घ)
लेखक किस तरह के साथियों से दूर रहने की सलाह देता है और
क्यों?
उत्तर:
लेखक ऐसे साथियों से दूर रहने की सलाह देता है जो अश्लील,
फूहड़ और अपवित्र बातों से हमें हँसाना चाहते हैं। इसका कारण है कि बुरी बातों को
चित्त से दूर रखने की लाख चेष्टा करने पर वे दूर नहीं होती है।
प्रश्नः (ङ)
एक बार बुराइयों में पैर पड़ने के बाद व्यक्ति उन्हें छोड़ नहीं
पाता है. क्यों?
उत्तर:
एक बार बुराई में पैर पड़ने के बाद व्यक्ति बुराइयों
का अभ्यस्त हो जाता है। उसे बुराइयों से चिढ़ समाप्त हो जाती है। उसे बुराइयाँ
हानिकारक नहीं लगती और वह इनको छोड़ नहीं पाता है।
(9) विश्व के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा के महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांगयोग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अन्तर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान् महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन शैली’ है।
अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारम्भिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है; वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामतः दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं। मेरा किसी से भी वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें तो फिर अहंकारवश उत्पन्न हुआ क्रोध या द्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाता है।
हमें ईर्ष्या तथा वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।
प्रश्नः (क)
भारतीय ग्रंथों में अहिंसा के बारे में क्या कहा गया
है?
उत्तर:
भारत के सनातन हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि के ग्रंथों
में अहिंसा को उत्तम बताया गया है। ‘अष्टांगयांग’ में अहिंसा को प्रथम स्थान तथा
‘गीता’ में जगह-जगह अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
प्रश्नः (ख)
‘जियो और जीने दो’ की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘जियो और जीने दो’ की बात भगवान महावीर ने कही है। इस कथन के मूल में भी
अहिंसा का भाव निहित है। हम स्वयं जिएँ पर अपने जीवन के लिए दूसरों का हम जीवन न
छीनें तथा उन्हें सताए नहीं।
प्रश्नः (ग)
गद्यांश में वर्णित अहिंसात्मक जीवनशैली से क्या तात्पर्य
है?
उत्तर:
अहिंसात्मक जीवन शैली से तात्पर्य है- किसी भी जीव का
संकल्पपूर्वक या जान-बूझकर वध न करना और किसी जीव या प्राणी मात्र को अकारण दुख
नहीं पहुँचाना है। दुख पहुँचाने का तरीका मन, वाणी या कर्म कोई भी नहीं होना
चाहिए।
प्रश्नः (घ)
क्रोध अहिंसा के मार्ग में किस तरह बाधक सिद्ध होता
है?
उत्तर:
बात-बात में क्रोध करना हिंसा का प्रारंभिक रूप है। क्रोध की
अधिकता व्यक्ति को अंधा बना देती है। क्रोध उसकी बुद्धि पर हावी होकर व्यक्ति को
अनुचित करने के लिए उकसाता है। इससे व्यक्ति दूसरों को दुख पहुंचाता है। इस तरह
क्रोध अहिंसा के मार्ग में बाधक है।
प्रश्नः (ङ)
क्षमा का उदात्त भाव मानव जीवन के लिए क्यों आवश्यक
है?
उत्तर:
क्षमा का उदात्त भाव क्रोध और द्वेष को शांत करता है। इससे
व्यक्ति परिवार के साथ सामंजस्य बिठाने एवं पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में सफल
होता है। इस तरह क्षमा मानव-जीवन के लिए आवश्यक है।
(10) कुछ लोगों के अनुसार मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य धन-संग्रह है। नीतिशास्त्र में धन-संपत्ति आदि को ही ‘अर्थ’ कहा गया है। बहुत से ग्रंथों में अर्थ की प्रशंसा की गई है; क्योंकि सभी गुण अर्थ अर्थात् धन के आश्रित ही रहते हैं। जिसके पास धन है वही सुखी रह सकता है, विषय-भोगों को संगृहीत कर सकता है तथा दान-धर्म भी निभा सकता है।
वर्तमान युग में धन का सबसे अधिक महत्त्व है। आज हमारी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं, इसलिए उनको पूरा करने के लिए धन-संग्रह की आवश्यकता पड़ती है। धन की प्राप्ति के लिए भी अत्यधिक प्रयत्न करना पड़ता है और सारा जीवन इसी में लगा रहता है। कुछ लोग तो धनोपार्जन को ही जीवन का उददेश्य बनाकर उचित-अनुचित साधनों का भेद भी भुला बैठते हैं। संसार के इतिहास में धन की लिप्सा के कारण जितनी हिंसाएँ, अनर्थ और अत्याचार हुए हैं, उतने और किसी दूसरे कारण से नहीं हुए हैं।
अतः धन को जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि धन अपने आप में मूल्यवान वस्तु नहीं है। धन को संचित करने के लिए छल-कपट आदि का सहारा लेना पड़ता है, जिसके कारण जीवन में अशांति और चेहरे पर विकृति बनी रहती है। इतना ही नहीं इसके संग्रह की प्रवृत्ति के पनपने के कारण सदा चोर, डाकू और दुश्मनों का भय बना रहता है। धन का अपहरण या नाश होने पर कष्ट होता है। इस प्रकार अशांति, संघर्ष, दुष्प्रवृत्ति, दुख, भय एवं पाप आदि का मूल होने के कारण, धन को जीवन का परम लक्ष्य नहीं माना जा सकता।
प्रश्नः (क)
जीवन में धन का सर्वाधिक महत्त्व क्यों माना गया
है?
उत्तर:
जीवन में धन का महत्त्व इसलिए बढ़ गया है क्योंकि बहुत से
धर्मग्रंथों में अर्थ अर्थात धन-संपत्ति की प्रशंसा की गई है। इसके अलावा सभी गुण
धन के आश्रित ही रहते हैं। जिसके पास धन है वही सुखी रह सकता है।
प्रश्नः (ख)
आज के युग में धन-संग्रह की आवश्यकता क्यों अधिक बढ़ गई
है?
उत्तर:
आज के युग में धन संग्रह की आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है क्योंकि आज
हमारी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं। उनको पूरा करने के लिए धन संग्रह की आवश्यकता
पड़ती है।
प्रश्नः (ग)
धन-संग्रह को ही जीवन का परम उद्देश्य मानने के कारण जीवन और जगत
में क्या दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं?
उत्तर:
(ग) धन-संग्रह को ही जीवन का
परम उद्देश्य मानने के कारण अनेक दुष्परिणाम दिखाई देते हैं-
(i) लोग
उचित-अनुचित का भेद भुला बैठते हैं।
(ii) अनेक बार हिंसाएँ अनर्थ और अत्याचार
हुए हैं।
प्रश्नः (घ)
धन को सर्वोच्च लक्ष्य मानना कितना उचित है और
क्यों?
उत्तर:
कुछ लोग धन को जीवन लक्ष्य मान बैठते हैं। यह बिलकुल भी उचित
नहीं है, क्योंकि धन अपने आप में मूल्यवान वस्तु नहीं है। इसको एकत्र करने के लिए
छल-कपट का सहारा लेना पड़ता है।
प्रश्नः (ङ)
धन दुख का कारण भी बन जाता है स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अनुचित
साधनों से धन एकत्र करने पर व्यक्ति अशांत रहता है। इसके नष्ट होने पर व्यक्ति को
कष्ट होता है। इस तरह धन दुख का कारण भी बन जाता है।
(11) आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।
कबीर हिंदू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते।
भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल धार्मिक
कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम
में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का
प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों – पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा
आदि के दिखावे का विरोध किया।
समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण,
वर्ग, भेद न्यून-से-न्यून हों। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पाँति के भेद में
विश्वास नहीं रखता। सदाचार ही संतों के लिए महत्त्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में
व्याप्त वाह्याडम्बरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा
धर्म-निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया।
प्रश्नः (क)
क्या कारण है कि कबीर छह सौ साल बाद भी प्रासंगिक लगते
हैं?
उत्तर:
कबीर छह सौ साल बाद भी आज इसलिए प्रासंगिक लगते हैं, क्योंकि
सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर हमारा ध्यान छह सौ साल पहले खींचा था वह समस्या
आज भी अपना असर दिखाकर जन-धन को नुकसान पहुँचा रही है।
प्रश्नः (ख)
किस समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है और
क्यों?
उत्तर:
सांप्रदायिकता की समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है क्योंकि जिस
तरह ज्वालामुखी सोई रहती है पर जब वह भड़कती है तो भयानक बन जाती है। यही स्थिति
सांप्रदायिकता की है। फैलने वाली सांप्रदायिकता के कारण लोग मारे जाते हैं और धन
संपत्ति की क्षति होती है।
प्रश्नः (ग)
समाज में ज्वालामुखी भड़कने के क्या दुष्परिणाम होते
हैं?
उत्तर:
समाज में ज्वालामुखी भड़कने का दुष्परिणाम यह होता है कि एक
संप्रदाय दूसरे संप्रदाय का दुश्मन बन जाता है। दोनों संप्रदाय एक-दूसरे की जान
लेने के लिए आमने-सामने आ जाते हैं। इससे जन-धन को हानि पहुँचती है।
प्रश्नः (घ)
मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार कैसे बलशाली बनते
हैं?
उत्तर:
मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार धार्मिक कट्टरता और
सांप्रदायिकता से बलशाही बनते हैं। मनुष्य अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ समझता है और
दूसरे धर्म का अनादर करता है। वह अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अन्य धर्म को
हानि पहुँचाने लगता है।
प्रश्नः (ङ)
कबीर ने किन माध्यमों का विरोध किया और क्यों?
उत्तर:
कबीर
ने पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावों का विरोध किया है क्योंकि इससे व्यक्ति
में धार्मिक कट्टरता उत्पन्न होती है तथा इस आधार पर व्यक्ति दूसरे धर्म के व्यक्ति
का अनादर करने लगता है।
(12) दैनिक जीवन में हम अनेक लोगों से मिलते हैं, जो विभिन्न प्रकार के काम करते हैं-सड़क पर ठेला लगानेवाला, दूधवाला, नगर निगम का सफाईकर्मी, बस कंडक्टर, स्कूल अध्यापक, हमारा सहपाठी और ऐसे ही कई अन्य लोग। शिक्षा, वेतन, परंपरागत चलन और व्यवसाय के स्तर पर कुछ लोग निम्न स्तर पर कार्य करते हैं तो कुछ उच्च स्तर पर। एक माली के कार्य को सरकारी कार्यालय के किसी सचिव के कार्य से अति निम्न स्तर का माना जाता है, किंतु यदि यही अपने कार्य को कुशलतापूर्वक करता है और उत्कृष्ट सेवाएँ प्रदान करता है तो उसका कार्य उस सचिव के कार्य से कहीं बेहतर है, जो अपने काम में ढिलाई बरतता है तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करता। क्या आप ऐसे सचिव को एक आदर्श अधिकारी कह सकते हैं? वास्तव में पद महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्त्वपूर्ण होता है, कार्य के प्रति समर्पण-भाव और कार्य-प्रणाली में पारदर्शिता।
इस संदर्भ में गांधी जी से उत्कृष्ट उदाहरण और किसका दिया जा सकता है, जिन्होंने अपने हर कार्य को गरिमामय मानते हुए किया। वे अपने सहयोगियों को श्रम की गरिमा की सीख दिया करते थे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों के लिए संघर्ष करते हुए उन्होंने सफ़ाई करने जैसे कार्य को भी कभी नीचा नहीं समझा और इसी कारण स्वयं उनकी पत्नी कस्तूरबा से भी उनके मतभेद हो गए थे।
बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ के माध्यम से पेड़ों को संरक्षण प्रदान किया। फादर डेमियन ऑफ मोलोकाई, मार्टिन लूथर किंग और मदर टेरेसा जैसी महान आत्माओं ने इसी सत्य को ग्रहण किया। इनमें से किसी ने भी कोई सत्ता प्राप्त नहीं की, बल्कि अपने जन-कल्याणकारी कार्यों से लोगों के दिलों पर शासन किया। गांधी जी का स्वतंत्रता के लिए संघर्ष उनके जीवन का एक पहलू है, किंतु उनका मानसिक क्षितिज वास्तव में एक राष्ट्र की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं था। उन्होंने सभी लोगों में ईश्वर के दर्शन किए। यही कारण था कि कभी किसी पंचायत तक के सदस्य नहीं बनने वाले गांधी जी की जब मृत्यु हुई तो अमेरिका का राष्ट्रध्वज भी झुका दिया गया था।
प्रश्नः (क)
विभिन्न व्यवसाय करने वाले लोगों के समाज में निम्न स्तर और उच्च
स्तर को किस आधार पर तय किया जाता है।
उत्तर:
विभिन्न व्यवसाय करने वाले
लोगों के समाज में निम्नस्तर और उच्च स्तर को उनकी शिक्षा वेतन व्यवसाय आदि के आधार
पर तय किया जाता है। उच्च शिक्षित तथा अधिक वेतन पाने वाले व्यक्ति के काम को उच्च
स्तर का तथा माली जैसों के काम को निम्न स्तर का माना जाता है।
प्रश्नः (ख)
एक माली अथवा सफाईकर्मी का कार्य किसी सचिव के कार्य से बेहतर
कैसे माना जा सकता है?
उत्तर:
एक माली अथवा सफाईकर्मी अपना काम पूरी निष्ठा
ईमानदारी, जिम्मेदारी और कुशलता से करता है तो उसका कार्य उस सचिव के कार्य से
बेहतर है जो अपने काम पर ध्यान नहीं देता है या अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं
करता है।
प्रश्नः (ग)
गांधी जी काम के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते थे। उनका अपनी पत्नी
के साथ क्यों मतभेद हो गया?
उत्तर:
गांधी जी सफ़ाई करने जैसे कार्य को
गरिमामय मानते थे। वे अपने सहयोगियों को श्रम करने की सीख देते थे फिर खुद श्रम से
कैसे पीछे रहते। उन्होंने सफ़ाई का काम स्वयं करना शुरू कर दिया। इसी बात पर उनका
पत्नी के साथ झगड़ा हो गया।
प्रश्नः (घ)
बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा, मदर टेरेसा आदि का उल्लेख क्यों
किया गया है?
उत्तर:
बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की
सेवा की सुंदरलाल बहुगुणा ने चिपको आंदोलन चलाकर पेडों को करने से बचाया तथा मदर
टेरेसा ने रोगियों की सेवा की। उन्होंने अपने कार्य को अत्यंत लगन से किया, इसलिए
उनका नाम उल्लिखित है।
प्रश्नः (ङ)
गांधी जी की मृत्यु पर अमेरिका का राष्ट्रध्वज क्यों झुका दिया
गया?
उत्तर:
गांधी जी की मृत्यु पर अमेरिका ने उनके सम्मान में अपना राष्ट्र
ध्वज झुका दिया। गांधी जी किसी एक व्यक्ति या राष्ट्र की भलाई के लिए काम न करके
समूची मानवता की भलाई के लिए काम कर रहे थे।
(13) परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन ही अटल सत्य है। अतः पर्यावरण में भी परिवर्तन हो रहा है लेकिन वर्तमान समय में चिंता की बात यह है कि जो पर्यावरणीय परिवर्तन पहले एक शताब्दी में होते थे, अब उतने ही परिवर्तन एक दशक में होने लगे हैं। पर्यावरण परिवर्तन की इस तेज़ी का कारण है विस्फोटक ढंग से बढ़ती आबादी, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और प्रयोग तथा सभ्यता का विकास। आइए, हम सभी मिलकर यहाँ दो प्रमुख क्षेत्रों का चिंतन करें एवं निवारण विधि सोचें। पहला है ओजोन की परत में कमी और विश्व के तापमान में वृद्धि।
ये दोनों क्रियाएँ परस्पर संबंधित है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सुपरसोनिक वायुयानों का ईजाद हुआ और वे ऊपरी आकाश में उड़ाए जाने लगे। उन वायुयानों के द्वारा निष्कासित पदार्थों में उपस्थित नाइट्रिक ऑक्साइड के द्वारा ओजोन परत का क्षय महसूस किया गया। यह ओजोन परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होता है। आगे शोध द्वारा यह भी पता चला कि वायुमंडल की ओजोन परत पर क्लोरो-फ्लोरो कार्बस प्रशीतक पदार्थ, नाभिकीय विस्फोट इत्यादि का भी दुष्प्रभाव पड़ता है। ओजोन परत जीवमंडल के लिए रक्षा-कवच है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों के विकिरण को रोकता है जो जीवमंडल के लिए घातक है।
अतः इन रासायनिक गैसों द्वारा ओजोन की परत की हो रही कमी को ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा 1978 में गुब्बारों और रॉकेटों की मदद से अध्ययन किया गया। अतः नवीनतम जानकारी के मुताबित अं टिका क्षेत्र के ऊपर ओजोन परत में बड़ा छिद्र पाया गया है जिससे हो सकता है कि सूर्य की घातक विकिरण पृथ्वी की सतह तक पहुँच रही हो और पृथ्वी की सतह गर्म हो रही हो। भारत में भी अंटार्कटिका स्थित अपने अड्डे, दक्षिण गंगोत्री से गुब्बारों द्वारा ओजोन मापक यंत्र लगाकर शोध कार्य में भाग लिया।
क्लोरो-फ्लोरो कार्बस रसायन सामान्य तौर पर निष्क्रिय होते हैं, पर वायुमंडल के ऊपर जाते ही उनका विच्छेदन हो जाता है। तकनीकी उपकरणों द्वारा अध्ययन से पता चला है कि पृथ्वी की सतह से क्लोरो-फ्लोरो कार्बस की मात्रा वायुमंडल में 15 मिलियन टन से भी अधिक है। इन कार्बस के अणुओं का वायुमंडल में मिलन अगर आज से भी बंद कर दें, फिर भी उनकी उपस्थिति वायुमंडल में आने वाले अनेक वर्षों तक बनी रहेगी। अतः क्लोरो-फ्लोरो कार्बस जैसे रसायनों के उपयोग पर हमें तुरंत प्रतिबंध लगाना होगा, ताकि भविष्य में उनके और ज्यादा अणुओं के बनने का खतरा कम हो जाए।
प्रश्नः (क)
कोई दो कारण लिखिए जिनसे पर्यावरण तेज़ी से परिवर्तित हो रहा
है?
उत्तर:
(क) पर्यावरण में तेजी से परिवर्तन लाने वाले दो कारक हैं
प्रश्नः (ख)
ओजोन परत क्या है? इसके क्षय (नुकसान) होने का क्या कारण
है?
उत्तर:
ओजोन एक गैस है जिसकी मोटी परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी
घेरे में होती है। यह हमें सूर्य की हानिकारक किरणों से बचाती है। सुपर सोनिक
विमानों से निकले धुएँ में नाइट्रिक आक्साइड होता है जिससे ओजोन को क्षति पहुँचती
है।
प्रश्नः (ग)
आजकल पृथ्वी की सतह क्यों गर्म हो रही है?
उत्तर:
आजकल
पृथ्वी की ऊपरी सतह इसलिए गर्म हो रही है क्योंकि अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत में
बड़ा छिद्र पाया गया है जिससे सूर्य की घातक विकिरण किरणें धरती पर पहुँच रही हैं।
इससे धरती गरम हो रही है।
प्रश्नः (घ)
ओजोन परत को रक्षा-कवच क्यों कहा गया है? यह परत किनसे प्रभावित
हो रही है?
उत्तर:
ओजोन परत को जीवमंडल की रक्षा कवच इसलिए कहा गया है
क्योंकि यह परत हमें सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों के विकिरण से बचाती
है।
यह परत क्लोरो फ्लोरो कार्बन, प्रशीतक पदार्थ नाभिकीय विखंडन आदि के द्वारा
प्रभावित हो रही है।
प्रश्नः (ङ)
क्लोरो फ्लोरो कार्बन रसायनों का विच्छेदन कैसे हो जाता
है?
उत्तर:
क्लोरो-फ्लोरो कार्बस रसायन सामान्यतया निष्क्रिय होते हैं, पर
वायुमंडलीय सीमा से ऊपर जाते ही उनका विखंडन अपने आप हो जाता है।
(14) आधुनिक युग विज्ञान का युग है। मनुष्य विकास के पथ पर बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। उसने समय के साथ स्वयं के लिए सुख के सभी साधन एकत्र कर लिए हैं। इतना होने के बाद और अधिक पा लेने की अभिलाषा में कोई कमी नहीं आई है बल्कि पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। समय के साथ उसकी असंतोष की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। कल-कारखाने, मोटर-गाड़ियाँ, रेलगाड़ी, हवाई जहाज़ आदि सभी उसकी इसी प्रवृत्ति की देन हैं। उसके इस विस्तार से संसाधनों के समाप्त होने का खतरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।
प्रकृति में संसाधन सीमित हैं। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ आवश्यकताएँ भी बढ़ती ही जा रही हैं। दिन-प्रतिदिन सड़कों पर मोटर-गाडियों की संख्या में अतुलनीय वृद्धि हो रही है। रेलगाड़ी हो या हवाई जहाज़ सभी की संख्या में वृद्धि हो रही है। मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। इन सभी मशीनों के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, परंतु जिस गति से ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ रही है उसे देखते हुए ऊर्जा के समस्त संसाधनों के नष्ट होने की आशंका बढ़ने लगी है। विशेषकर ऊर्जा के उन सभी साधनों की जिन्हें पुनः निर्मित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए पेट्रोल, डीजल, कोयला तथा भोजन पकाने की गैस आदि।
पेट्रोल अथवा डीजल जैसे संसाधनों रहित विश्व की परिकल्पना भी दुष्कर प्रतीत होती है। परंतु वास्तविकता यही है कि जिस तेज़ी से हम इन संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं उसे देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब धरती से ऊर्जा के हमारे ये संसाधन विलुप्त हो जायेंगे। अत: यह आवश्यक है कि हम ऊर्जा संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दें अथवा इसके प्रतिस्थापन हेतु अन्य संसाधनों को विकसित करे क्योंकि यदि समय रहते हम अपने प्रयासों में सक्षम नहीं होते तो संपूर्ण मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ सकती है।
प्रश्नः (क)
मनुष्य के विकास और उसकी अभिलाषा के बीच क्या संबंध है? गद्यांश
के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
मनुष्य और उसकी अभिलाषा के बीच यह संबंध है कि
मनुष्य ने ज्यों-ज्यों विकास किया त्यों-त्यों उसकी अभिलाषा बढ़ती गई। मनुष्य को
जैसे-जैसे सुख-सुविधाएँ मिलती गईं उसकी अभिलाषा कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही
हैं।
प्रश्नः (ख)
कल कारखाने मनुष्य की किस प्रवृत्ति की देन हैं? इस प्रवृत्ति से
क्या हानि हुई है?
उत्तर:
कल-कारखाने, मोटर गाड़ियाँ मनुष्य की बढ़ती अभिलाषा
की प्रवृत्ति की देन है। इस प्रवृत्ति के लगातार बढ़ते जाने से यह हानि हुई है कि
कोयला, पेट्रोल जैसे संसाधनों के समाप्त होने का खतरा बढ़ गया है।
प्रश्नः (ग)
ऊर्जा के संसाधनों के नष्ट होने का खतरा क्यों बढ़ गया है
?
उत्तर:
विश्व में जनसंख्या बढ़ने के साथ ही उसकी आवश्यकताओं में खूब वृद्धि
हुई है। रेल-मोटर गाड़ियाँ बेतहाशा बढ़ी हैं। इनके लिए तेज़ गति से ऊर्जा की
आवश्यकता बढ़ी है। इसे देखते हुए उर्जा के संसाधनों के नष्ट होने का खतरा बढ़ गया
है।
प्रश्नः (घ)
ऊर्जा के वे कौन से संसाधन हैं जिनके खत्म होने की आशंका से
मनुष्य घबराया हुआ है?
उत्तर:
ऊर्जा के जिन साधनों के नष्ट होने से मनुष्य
घबराया है वे ऐसे संसाधन हैं जिन्हें नष्ट होने पर पुनः नहीं बनाया जा सकता है। ऐसे
साधनों में डीजल, कोयला, पेट्रोल, खाना पकाने की गैस प्रमुख है।
प्रश्नः (ङ)
उर्जा संरक्षण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता क्यों बढ़ गई
है?
उत्तर:
ऊर्जा संसाधन के संरक्षण की आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि
इनके अंधाधुंध उपयोग से इनके नष्ट होने का खतरा मँडराने लगा है। इसके लिए हमें इनका
सावधानी से प्रयोग करते हुए इनके विकल्पों की खोज करनी चाहिए।
(15) पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। दरअसल पड़ोस जितना स्वाभाविक है, हमारी सामाजिक सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए वह उतना ही आवश्यक भी है। यह सच है कि पड़ोसी का चुनाव हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पड़ोसी के साथ कुछ-न-कुछ सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है। हमारा पड़ोसी अमीर हो या गरीब, उसके साथ संबंध रखना सदैव हमारे हित में ही होता है। पड़ोसी से परहेज़ करना अथवा उससे कटे-कटे रहने में अपनी ही हानि है, क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा अथवा आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों अथवा परिवारवालों को बुलाने में समय लगता है।
यदि टेलीफ़ोन की सुविधा भी है तो भी कोई निश्चय नहीं कि उनसे समय पर सहायता मिल ही जाएगी। ऐसे में पड़ोसी ही सबसे अधिक विश्वस्त सहायक हो सकता है। पड़ोसी चाहे कैसा भी हो, उससे अच्छे संबंध रखने ही चाहिए। जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, उससे सहानुभूति नहीं रख सकता, उसके साथ सुख-दुख का आदान-प्रदान नहीं कर सकता तथा उसके शोक और आनंद के क्षणों में शामिल नहीं हो सकता, वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा। विश्व-बंधुत्व की बात भी तभी मायने रखती है, जब हम अपने पड़ोसी से निभाना सीखें।
प्रायः जब भी पड़ोसी से खटपट होती है तो इसलिए कि हम आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि किसी को भी अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी की रोक-टोक और हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगता। पड़ोसी के साथ कभी-कभी तब भी अवरोध पैदा हो जाते हैं, जब हम आवश्यकता से अधिक उससे अपेक्षा करने लगते हैं। बात नमक-चीनी के लेन-देन से आरंभ होती है तो स्कूटर और कार तक माँगने की नौबत ही न आए। आपको परेशानी में पड़ा देख पड़ोसी खुद ही आगे आ जाएगा। पड़ोसियों से निर्वाह करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि बच्चों को नियंत्रण में रखें। आमतौर से बच्चों में जाने-अनजाने छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं और बात बड़ों के बीच सिर फुटौवल तक जा पहुँचती है। इसलिए पड़ोसी के बगीचे से फल-फूल तोड़ने, उसके घर में ऊधम मचाने से बच्चों पर सख्ती से रोक लगाएँ। भूलकर भी पड़ोसी के बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा संबंधों में कड़वाहट आते देर न लगेगी।
प्रश्नः (क)
पड़ोस का सामाजिक जीवन में क्या महत्त्व है?
उत्तर:
पड़ोस
सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। यह हमारी सुरक्षा के लिए तथा
सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए भी बहुत आवश्यक है।
प्रश्नः (ख)
कैसे कह सकते हैं कि पड़ोसी के साथ सामंजस्य बिठाना हमारे हित
में है?
उत्तर:
मुसीबत के समय सहायता के लिए पड़ोसी से तालमेल बिठाना आवश्यक
होता है, क्योंकि पड़ोसी ही हमारे सबसे निकट होता है। हमारी सहायता करने वाला वही
पहला व्यक्ति होता है क्योंकि हमारे रिश्तेदारों को आने में समय लग जाता है।
प्रश्नः (ग)
“जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, …वह भला अपने समाज अथवा
देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा!” उपर्युक्त पंक्तियों का भाव अपने
शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता वह विश्व से
भला कैसे जुड़ सकता है, क्योंकि विश्व से जुड़ने का आधार पड़ोस है। जो अपने पड़ोस
से मिलकर एक नहीं हो सकता, वह भला देश या समाज से एक होकर कैसे रह सकता है।
प्रश्नः (घ)
पड़ोसी से खटपट होने में हमारी भूल कितनी जिम्मेदार रहती
है?
उत्तर:
पड़ोसी के साथ खटपट होने का मुख्य कारण होता है-आवश्यकता से अधिक
पड़ोसी के व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करना। यह व्यक्तिगत हस्तक्षेप
उसे अच्छा नहीं लगता। इस तरह खटपट के लिए हमारी भूल जिम्मेदार रहती है।
प्रश्नः (ङ)
पड़ोसी से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए हमें क्या करना
चाहिए?
उत्तर:
पड़ोसी से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए हमें
(16) समस्त ग्रंथों एवं ज्ञानी, अनुभवीजनों का कहना है कि जीवन एक कर्मक्षेत्र है। हमें कर्म के लिए जीवन मिला है। कठिनाइयाँ एवं दुख और कष्ट हमारे शत्रु हैं, जिनका हमें सामना करना है और उनके विरुद्ध संघर्ष करके हमें विजयी बनना है। अंग्रेज़ी के यशस्वी नाटककार शेक्सपीयर ने ठीक ही कहा है कि “कायर अपनी मृत्यु से पूर्व अनेक बार मृत्यु का अनुभव कर चुके होते हैं किंतु वीर एक से अधिक बार कभी नहीं मरते हैं।”
विश्व के प्रायः समस्त महापुरुषों के जीवन वृत्त अमरीका के निर्माता जॉर्ज वाशिंगटन और राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन से लेकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन चरित्र हमें यह शिक्षा देते हैं कि महानता का रहस्य संघर्षशीलता, अपराजेय व्यक्तित्व है। इन महापुरुषों को जीवन में अनेक संकटों का सामना करना पड़ा परंतु वे घबराए नहीं, संघर्ष करते रहे और अंत में सफल हुए। संघर्ष के मार्ग में अकेला ही चलना पड़ता है। कोई बाहरी शक्ति आपकी सहायता नहीं करती है। परिश्रम, दृढ़ इच्छा शक्ति व लगन आदि मानवीय गुण व्यक्ति को संघर्ष करने और जीवन में सफलता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
समस्याएँ वस्तुतः जीवन का पर्याय हैं यदि समस्याएँ न हों तो आदमी प्रायः अपने को निष्क्रिय समझने लगेगा। ये समस्याएँ वस्तुतः जीवन की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। समस्या को सुलझाते समय उसका समाधान करते समय व्यक्ति का श्रेष्ठतम तत्व उभरकर आता है। धर्म, दर्शन, ज्ञान, मनोविज्ञान इन्हीं प्रयत्नों की देन हैं। पुराणों में अनेक कथाएँ यह शिक्षा देती हैं कि मनुष्य जीवन की हर स्थिति में जीना सीखे व समस्या उत्पन्न होने पर उसके समाधान के उपाय सोचे। जो व्यक्ति जितना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करेगा, उतना ही उसके समक्ष समस्याएँ आएँगी और उनके परिप्रेक्ष्य में ही उसकी महानता का निर्धारण किया जाएगा।
प्रश्नः (क)
महापुरुषों ने जीवन को एक कर्मक्षेत्र क्यों कहा
है?
उत्तर:
मनुष्य के जीवन में सबसे ज़रूरी है- कर्म करते हुए जीवन पथ पर आगे
बढ़ना और निरंतर कर्म करना। इसका कारण है जीवन ही कर्म करने के लिए मिला है। कर्म
द्वारा संघर्ष ही हमें सदैव विजयी बना सकता है।
प्रश्नः (ख)
महापुरुषों का जीवन हमें क्या संदेश देता
है?
उत्तर:
महापुरुषों का जीवन हमें यह संदेश देता है कि महानता का रहस्य
संघर्षशीलता एवं अपराजेय व्यक्तित्व है। हमें कभी संघर्ष से घबराना नहीं चाहिए। इन
महापुरुषों की सफलता का रहस्य है- जीवन में संकटों से घबराए बिना संघर्ष करते
रहना।
प्रश्नः (ग)
समस्याएँ हमारे जीवन का पर्याय कैसे हैं ? समस्याओं का सामना
हमें किस प्रकार करना चाहिए?
उत्तर:
समस्याएँ हमारे जीवन का पर्याय हैं।
समस्या आने पर उनसे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति संघर्ष करता है। इस तरह वे हमें
कर्म के लिए प्रेरित करती हैं और हम कर्मशील बनते हैं। हमें समस्याओं का सामना
धैर्यपूर्वक सोच समझकर करना चाहिए।
प्रश्नः (घ)
संघर्ष के मार्ग की क्या विशेषताएँ हैं?
उत्तर:
संघर्ष के
मार्ग की विशेषता यह है कि व्यक्ति को इस मार्ग पर अकेला चलना पड़ता है। इसमें कोई
बाहरी शक्ति हमारी मदद नहीं करती है। संघर्ष में सफलता पाने के लिए परिश्रम, दृढ़
इच्छाशक्ति, लगन आदि मानवीय गुणों की आवश्यकता होती है।
प्रश्नः (ङ)
पुराणों की कथाओं में हमें क्या सीख दी गई
है?
उत्तर:
पुराणों की कथाओं में यह सीख दी गई है कि मनुष्य जीवन की हर
स्थिति में जीना सीखे, समस्याएँ उत्पन्न होने पर उसके समाधान का उपाय सोचे।
समस्याओं का समाधान करने की क्षमता से व्यक्ति की महानता का संबंध बताकर समस्याएँ
हमें संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं।
(17) श्रमहीन शरीर की दशा जंग लगी हुई चाबी की तरह अथवा अन्य किसी उपयोगी वस्तु
की तरह निष्क्रिय हो जाती है। शारीरिक श्रम वस्तुत जीवन का आधार है, जीवंतता की
पहचान है। योगाभ्यास में तो पहली शिक्षा होती है आसन आदि के रूप में शरीर को
श्रमशीलता का अभ्यस्त बनाना।
महात्मा गांधी अपना काम अपने हाथ से करने पर बल
देते थे। वह प्रत्येक आश्रमवासी से आशा करते थे कि वह अपने शरीर से संबंधित
प्रत्येक कार्य सफ़ाई तक स्वयं करेगा। उनका कहना था कि जो श्रम नहीं करता है, वह
पाप करता है और पाप का अन्न खाता है।
ऋषि मुनियों ने कहा है- बिना श्रम किए जो भोजन करता है, वह वस्तुतः चोर है। महात्मा गांधी का समस्त जीवन दर्शन श्रम सापेक्ष था। उनका समस्त अर्थशास्त्र यही बताता था कि प्रत्येक उपभोक्ता को उत्पादनकर्ता होना चाहिए। उनकी नीतियों की उपेक्षा करने का परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं। न गरीबी कम होने में आती है, न बेरोजगारी पर नियंत्रण हो पा रहा है और न अवरोधों की वृद्धि हमारे वश की बात रही है। दक्षिण कोरिया वासियों ने श्रमदान करके ऐसे श्रेष्ठ भवनों का निर्माण किया है, जिनसे किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है।
श्रम की अवज्ञा के परिणाम का सबसे ज्वलंत उदाहरण है, हमारे देश में व्याप्त शिक्षित वर्ग की बेकारी। हमारा शिक्षित युवा वर्ग शारीरिक श्रमपरक कार्य करने से परहेज करता है, वह यह नहीं सोचता है कि शारीरिक श्रम परिमाणतः कितना सुखदायी होता है। पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है। ‘दिन अस्त और मज़दूर मस्त’ इसका भेद जानने वाले महात्मा ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों को यह परामर्श दिया था कि तुम केवल पसीने की कमाई खाओगे। पसीना टपकाने के बाद मन को संतोष और तन को सुख मिलता है, भूख भी लगती है और चैन की नींद भी आती है। हमारे समाज में शारीरिक श्रम न करना सामान्यतः उच्च सामाजिक स्तर की पहचान माना जाता है।
यही कारण है कि ज्यों के यों आर्थिक स्थिति में सुधार होता जाता है। त्यों त्यों बीमारी व बीमारियों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। इतना ही नहीं बीमारियों की नई-नई किस्में भी सामने आती जाती हैं। जिसे समाज में शारीरिक श्रम के प्रति हेय दृष्टि नहीं होती है, वह समाज अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं सुखी दिखाई देता है। विकसित देशों के निवासी शारीरिक श्रम को जीवन का अवश्यक अंग समझते हैं। ऐसे उदाहरण भारत में ही मिल सकते हैं, शत्रु दरवाजा तोड़ रहे हैं और नवाब साहब इंतज़ार कर रहे हैं जूते पहनने वाली बाँदी का।
प्रश्नः (क)
जीवन का आधार क्या है और क्यों?
उत्तर:
जीवन का आधार
शारीरिक श्रम है। इसका कारण यह है कि जो शरीर श्रम नहीं करता है, उसकी दशा उस जंग
लगी चाबी जैसी होती है जो उपयोग में न आने के कारण बेकार हो जाती है। अपठित
गद्यांश
प्रश्नः (ख)
गांधी जी की नीति क्या थी? उसकी उपेक्षा का परिणाम हम किस रूप
में भोग रहे हैं?
उत्तर:
गांधी जी की नीति यह थी कि प्रत्येक व्यक्ति अपना
काम स्वयं करे। श्रम न करने वाला पाप का अन्न खाता है। उनकी नीतियों की उपेक्षा का
परिणाम हम इन रूपों में भोग रहे हैं
प्रश्नः (ग)
समाज की आर्थिक स्थिति और बीमारियों में संबंध बताते हुए श्रम के
दो लाभ लिखिए।
उत्तर:
समाज की आर्थिक स्थिति और बीमारियों में गहरा संबंध है।
ज्यों-ज्यों समाज की आर्थिक स्थिति बढ़ती है त्यों-त्यों वहाँ बीमारियों की संख्या
भी बढ़ती जाती है क्योंकि व्यक्ति परिश्रम से विमुख होने लगता है। परिश्रम करने
से-
प्रश्नः (घ)
शिक्षित वर्ग की बेकारी का क्या कारण है? यह वर्ग किस बात से
अनभिज्ञ है?
उत्तर:
युवा शिक्षित वर्ग की बेकारी का कारण शारीरिक श्रम की
उपेक्षा है। यह वर्ग इस बात से अनभिज्ञ है कि शारीरिक श्रम कितना सुखदायी होता है
और पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है।
प्रश्नः (ङ)
श्रम के प्रति भारत और अन्य देशों की सोच में क्या अंतर है? इस
सोच का परिणाम क्या होता है?
उत्तर:
श्रम के प्रति हमारे देश की सोच यह है कि
जब ज़रूरत आ पड़ेगी तब देखा जाएगा वही अन्य देश इसे जीवन का आवश्यक अंग समझते हैं।
इस सोच का परिणाम यह होता है कि परिश्रम करने वाले देश उन्नति करते हैं तथा दूसरे
पिछड़ते जाते हैं।
(18) ईश्वर के प्रति आस्था वास्तव में जन्मजात न होकर सामान्यतः हमारे घर-परिवार और परिवेश से हमें संस्कारों के रूप में मिलती है और ज़्यादातर लोग बचपन में इसे बिना कोई प्रश्न किए ही ग्रहण करते हैं। हमें छह में से सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा मिला जिसका कहना है कि वह बचपन से ही ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संदेहशील हो चला था, लेकिन पाँच ने कहा कि उनके साथ ऐसी स्थिति नहीं थी। जिस व्यक्ति ने यह कहा कि बचपन से ही उसने ईश्वर के बारे में अपने संदेह प्रकट करने शुरू कर दिए थे, उसका कहना था कि ऐसा उसने शायद अपने आसपास के जीवन में सामाजिक विसंगतियाँ देखकर किया होगा, क्योंकि उसके सवालों के स्रोत यही थे।
एक तरफ उसने पाया कि धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक लोगों के कथनों से कुछ और बात निकलती हैं, लेकिन जो आसपास के वातावरण में उन्हें देखने को मिलता है तथा ये धार्मिक लोग स्वयं जो व्यवहार करते हैं वह कुछ और है, लेकिन बाकी पांच ने सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों और ईश्वर के प्रति आस्था में अंतर्संबंध पहले नहीं देखे थे। जिन लोगों ने ईश्वर में आस्था बाद में खो दी, उन्होंने माना कि इसका मूल कारण उनका पुस्तकों से बचपन से ही संपर्क में आना रहा है। बाद में निरीश्वरवादी विचारों तथा नास्तिकों के संपर्क में आने से ईश्वर में आस्था बाद में खो दी। वे नहीं मानते कि उनके इस जीवन में बाद में कभी ऐसा कोई समय भी आ सकता है, जब वे ईश्वर की तरफ पुनः लौटने की बाध्यता महसूस करेंगे, हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को भी देखा है, जो अपने युवाकाल में घनघोर नास्तिक थे, मगर जीवन के अंतिम दौर तक आकर घनघोर आस्तिक बन गये।
आस्तिकों का कहना है कि ईश्वर के विरुद्ध कोई कितना ही मज़बूत तर्क पेश करे,
उनकी ईश्वर में आस्था कभी कमज़ोर नहीं पड़ेगी। तर्क वे सुन लेंगे, लेकिन ईश्वर नहीं
है, इस बात को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे। उनका मानना है कि तर्क से
ईश्वर को पाया नहीं जा सकता, वह तो तर्कातीत है। दूसरी तरफ जिन्होंने ईश्वर में
अपनी आस्था खो दी है, उनका कहना है कि उन्होंने अपनी नव अर्जित नास्तिकता के कारण
अपने परिवार और समाज में अकेला पड़ जाने का खतरा भी उठाया है लेकिन धीरे-धीरे अपने
परिवार में उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर ली है कि उन्हें इस रूप में स्वीकार किया
जाने लगा है।
यह पाया गया कि ईश्वर में व्यक्ति की आस्था को कायम रखने के लिए
तमाम तरह का संस्थागत समर्थन निरंतर मिलता रहता है, जबकि इसके विपरीत स्थिति नहीं
है।
वे संस्थाएँ भी ईश्वर और धर्म के प्रति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आस्था पैदा और मज़बूत करने की कोशिश करती हैं, जिनका कि प्रत्यक्ष रूप से धर्म से कोई संबंध नहीं है। जैसे परिवार, पास-पड़ोस, स्कूल, अदालतें, काम की जगहें आदि। एक साथी ने बताया कि वे एक ऐसे कालेज में काम करते थे, जहाँ रोज सुबह ईश्वर की प्रार्थना गाई जाती है, जिससे छात्र-छात्राएँ तो किसी तरह बच भी सकते हैं, लेकिन अध्यापक नहीं, अगर वे बचने की कोशिश करते हैं, तो उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।
प्रश्न
प्रश्नः (क)
ईश्वर के प्रति आस्था हम कहाँ से ग्रहण करते हैं ? हम
उसे किस तरह स्वीकारते हैं ?
उत्तर:
ईश्वर के प्रति आस्था हम अपने घर-परिवार
और परिवेश से संस्कार के रूप में ग्रहण करते हैं। इस आस्था पर कोई तर्क वितर्क या
सोच-विचार किए बिना हम ग्रहण कर लेते हैं।
प्रश्नः (ख)
छह में से एक व्यक्ति के ईश्वर के प्रति संदेहशील हो उठने का
क्या कारण था?
उत्तर:
छह में से एक व्यक्ति के ईश्वर के प्रति संदेहशील हो
उठने का कारण था- उसके द्वारा अपने आसपास के जीवन में सामाजिक विसंगतियाँ देखना।
उसने पाया कि धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक लोग की बातों में और उनके व्यवहार में
बहुत अंतर है।
प्रश्नः (ग)
ईश्वर के प्रति आस्था खो देने का क्या कारण था? वे अपने विचार का
किस तरह खंडन करते दिखाई देते हैं ?
उत्तर:
ईश्वर के प्रति आस्था खो देने का
कारण था- बचपन से ही पुस्तकों के संपर्क में आना और बाद में निरीश्वरवादी और
नास्तिकों के संपर्क में आना। ये लोग कहते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को देखा है कि
युवावस्था में घोर नास्तिक थे परंतु जीवन के अंतिम समय में घोर आस्तिक बन गए। ऐसा
कहकर वे अपने विचारों का खंडन करते हैं।
प्रश्नः (घ)
ईश्वर के बारे में आस्तिकों का क्या कहना है? इस बारे में वे
क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
ईश्वर के बारे में आस्तिकों का कहना है कि कोई
ईश्वर के विरुद्ध कितना भी मज़बूत तर्क प्रस्तुत करे पर वे अपनी आस्था को कमज़ोर
नहीं होने देंगे। इस बारे में वे तर्क देते हैं कि ईश्वर को तर्क से नहीं पाया जा
सकता है वह तर्क से परे है।
प्रश्नः (ङ)
नास्तिक हो जाने से व्यक्ति क्या हानि उठता
है?
उत्तर:
नास्तिक हो जाने से व्यक्ति परिवार और समाज में अकेला पड़ जाता
है। बाद में उसे लोगों के बीच ऐसी स्थिति बनानी पड़ती है कि सब उसे उसी स्थिति में
स्वीकार करें।
अपठित काव्यांश
अपठित काव्यांश का उद्देश्य काव्य पंक्तियों का भाव और अर्थ समझना, कठिन शब्दों के अर्थ समझना, प्रतीकार्थ समझना, काव्य सौंदर्य समझना, भाषा-शैली समझना तथा काव्यांश में निहित संदेश। शिक्षा की समझ आदि से संबंधित विद्यार्थियों की योग्यता की जाँच-परख करना है।
अपठित काव्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करने से पहले काव्यांश को दो-तीन बार पढ़ना चाहिए तथा उसका भावार्थ और मूलभाव समझ में आ जाए। इसके लिए काव्यांश के शब्दार्थ एवं भावार्थ पर चिंतन-मनन करना चाहिए। छात्रों को व्याकरण एवं भाषा पर अच्छी पकड़ होने से यह काम आसान हो जाता है। यद्यपि गद्यांश की तुलना में काव्यांश की भाषा छात्रों को कठिन लगती है। इसमें प्रतीकों का प्रयोग इसका अर्थ कठिन बना देता है, फिर भी निरंतर अभ्यास से इन कठिनाइयों पर विजय पाई जा सकती है।
अपठित काव्यांश संबंधी प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित प्रमुख बातों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए
<0L>काव्यांश को हल करने में आनेवाली कठिनाई से बचने के लिए छात्र यह उदाहरण देखें और समझें-
निम्नलिखित काव्यांश को पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्नः 1.
कवि देशवासियों से क्या आह्वान कर रहा है?
उत्तर:
कवि
देशवासियों से यह आह्वान कर रहा है कि वे भारत में एकता स्थापित करके सुख-शांति से
जीवन बिताएँ।
प्रश्नः 2.
आपस में एकता बनाए रखने के लिए किसका उदाहरण दिया गया है
?
उत्तर:
आपस में एकता बनाए रखने के लिए कवि तरह-तरह के फूलों से बनी सुंदर
माला का उदाहरण दे रहा है।
प्रश्नः 3.
देश में एकता की भावना कब मज़बूत हो सकती है?
उत्तर:
देश
में एकता की सच्ची भावना तब मज़बूत हो सकती है जब हर देशवासी जाति-धर्म, भाषा
प्रांत आदि के बारे में अविवेक से सोचना बंद करे और सच्चे मन से दूसरों से मेल
करे।
प्रश्नः 4.
“भिन्नता में खिन्नता’ के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है और
क्यों?
उत्तर:
भिन्नता के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि अलग-अलग रहने का
परिणाम दुख एवं अशांति ही होता है। अतः हमें मेल जोल और ऐक्यभाव से रहना चाहिए
क्योंकि एकता के अभाव में देश कमज़ोर हो जाएगा जिसका परिणाम दुखद ही होगा।
प्रश्नः 5.
काव्यांश में सच्ची एकता किसे कहा गया है ? इसे बनाए रखने के लिए
क्या करना चाहिए?
उत्तर:
सच्चे मन से ही एक-दूसरे से मिलने को सच्ची एकता कहा
है। इसके लिए भारतीयों को आपसी बैर और विरोध को सप्रयास बलपूर्वक दबा देना चाहिए और
एकता मज़बूत करनी चाहिए।
उदाहरण (उत्तर सहित)
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(1) पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!
पुस्तकों में है नहीं, छापी गई
इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जुबानी,
अनगिनत राही गए इस राह
से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर, छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी
मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर
ले!
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!
है अनिश्चित किस जगह पर, सरित-गिरि-गह्वर
मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह
पर, बाग-बन सुंदर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा खत्म हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,
है
अनिश्चित, कब सुमन, कब कंटकों के सर मिलेंगे,
कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन
सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले!
पूर्व चलने के बटोही, बाट
की पहचान कर ले!
प्रश्नः (क)
कवि ने बटोही को क्या सलाह दी है और क्यों?
उत्तर:
कवि ने
बटोही को यह सलाह दी है कि वह रास्ते पर चलने से पहले उसके बारे में जाँच-परख कर
ले। वह ऐसा करने के लिए इसलिए कहता है क्योंकि इससे यात्रा सुगम और निर्विघ्न रूप
से पूरी हो जाएगी।
प्रश्नः (ख)
निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है, कैसे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जीवन पथ पर बहुत से लोग गए हैं पर उनमें कुछ विशिष्ट लोग भी थे, जो अपने
अच्छे कर्मों का उदाहरण छोड़ गए। उनके द्वारा छोड़ी गई अच्छे कर्मों की निशानी
यद्यपि मूक है पर हमें जीवन पथ पर चलते जाने की प्रेरणा देती है।
प्रश्नः (ग)
कवि ने जीवन मार्ग में क्या-क्या अनिश्चितताएँ बताई
हैं?
उत्तर:
कवि ने जीवन पथ में मिलने वाले सुख-दुख, साथ-चलने वालों का अचानक
साथ छोड़ देना या नए यात्रियों का मिल जाना और जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है जैसी
अनिश्चितताएँ बताई हैं।
(2) आज की दुनिया विचित्र, नवीन;
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष
आसीन।
हैं बँधे नर के करों में वारि, विद्युत्, भाप,
हुक्म पर चढ़ता-उतरता है
पवन का ताप।
है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
लाँघ सकता नर सरित्, गिरि, सिंधु एक
समान।
प्रकृति के सब तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य;
मानते हैं हुक्म मानव का
महा वरुणेश,
और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश।
नव्य नर की मुष्टि में विकराल,
हैं
सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण विकराल।
यह प्रगति निस्सीम! नर का यह अपूर्व
विकास!
चरण-तल भूगोल! मुट्ठी में निखिल आकाश!
किंतु, है बढ़ता गया मस्तिष्क
ही निःशेष,
शीश पर आदेश कर अवधार्य,
छूट पर पीछे गया है रह हृदय का
देश;
मोम-सी कोई मुलायम चीज़
ताप पाकर जो उठे मन में पसीज-पसीज।
प्रश्नः (क)
कवि को आज की दुनिया विचित्र और नवीन क्यों लग रही
है?
उत्तर:
कवि को आज की दुनिया विचित्र और नवीन इसलिए लग रही है क्योंकि आज
मनुष्य ने प्रकृति पर सर्वत्र विजय प्राप्त कर ली है। प्राकृतिक बाधाएँ उसका मार्ग
नहीं रोक पाती हैं।
प्रश्नः (ख)
‘हैं नहीं बाकी कहीं व्यवधान’ के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता
है?
उत्तर:
कहीं नहीं बाकी व्यवधान के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि
मनुष्य के सामने अब कोई रुकावट नहीं है। आज पानी, बिजली, भाप, वायु मनुष्य के हाथों
में बँधे हैं। वह अपनी मर्जी से इनका उपयोग कर रहा है। अब नदी, पहाड़, सागर सभी को
लाँघ सकता है।
प्रश्नः (ग)
मानव द्वारा किए गए वैज्ञानिक प्रगति के अद्भुत विकास कवि को
खुशी नहीं दे रहे हैं, क्यों?
उत्तर:
मानव द्वारा किए गए अद्भुत विकास कवि को
इसलिए खुशी नहीं दे रहे हैं क्योंकि मनुष्य ने अपने मस्तिष्क का विकास तो खूब किया
पर हृदय का विकास पीछे छूट गया अर्थात् जीवन मूल्यों में गिरवाट आती गई।
(3) मैं तो मात्र मृत्तिका हूँ-
जब तुम मुझे पैरों से रौंदते हो ।
तथा हल
के फाल से विदीर्ण करते हो
तब मैं-
धन-धान्य बनकर मातृरूपा हो जाती हूँ।
पर जब भी तुम
अपने पुरुषार्थ-पराजित स्वत्व से मुझे पुकारते हो
तब मैं
अपने ग्राम्य देवत्व के साथ विन्मयी शक्ति हो जाती हूँ
प्रतिमा बन
तुम्हारी आराध्या हो जाती हूँ।
विश्वास करो
यह सबसे बड़ा देवत्व है कि
तुम
पुरुषार्थ करते मनुष्य हो
और में स्वरूप पाती मृत्तिका।
प्रश्नः (क)
पुरुषार्थ को सबसे बड़ा देवत्व क्यों कहा गया
है?
उत्तर:
मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा ही मिट्टी को भिन्न आकार देता है।
मनुष्य के पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप ही मिट्टी चिन्मयी शक्ति का रूप धारण करती है।
पुरुषार्थ हर सफलता का मूलमंत्र है, इसलिए उसे सबसे बड़ा देवत्व माना गया है।
प्रश्नः (ख)
मिट्टी चिन्मयी शक्ति कब बन जाती है, कैसे?
उत्तर:
मिट्टी
जब आराध्या की प्रतिमा बन जाती है तब वह चिन्मयी शक्ति प्राप्त कर लेती है। मनुष्य
जब थक हारकर आराध्या की आराधना करता है तब वह पराजित मनुष्य को सांत्वना देकर उसे
शक्ति प्रदान करती है।
प्रश्नः (ग)
मिट्टी मातृरूपा कब बन जाती है?
उत्तर:
मिट्टी को जब जोत
कर, रौंदकर भुरभुरा बनाया जाता है, उसमें फसलें उगाई जाती है तब मिट्टी धन-धान्य से
भरपूर हो जाती है और मातृरूपा बनाकर माँ के समान हमारा भरण-पोषण करती है।
(4) हम प्रचंड की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल।
।
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल।
हम प्रहरी ऊँचे हिमाद्रि के,
सुरभि स्वर्ग की लेते हैं।
हम हैं शांति-दूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर प्रसू माँ की आँखों के, हम नवीन उजियाले हैं।
गंगा, यमुना, हिंद महासागर के
हम ही रखवाले हैं।
तन-मन-धन तुम पर कुर्बान,
जियो, जियो जय हिंदुस्तान !
हम सपूत उनके, जो नर थे, अनल और मधु के मिश्रण।
जिनमें नर का तेज प्रखर था,
भीतर था नारी का मन।
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल।
जितना कठिन खड्ग
था कर में उतना ही अंतर के मल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर।
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर।
हम उन वीरों की संतान
जियो,
जियो जय हिंदुस्तान।
प्रश्नः (क)
कविता में ‘हम’ कौन हैं ?
उत्तर:
कविता में ‘हम’ भारत की
नई पीढ़ी के नवयुवक हैं। वे अपने को प्रचंड की नई किरण इसलिए कह रहे हैं कि क्योंकि
अब उन्हें अपने अच्छे कार्यों का आलोक दुनिया भर में फैलाना है, तथा वे देश के भावी
कर्णधार हैं।
प्रश्नः (ख)
भारतवासी हिंदुस्तान पर क्या-क्या न्योछावर करना चाहते हैं,
क्यों?
उत्तर:
भारतीय नवयुवक अपने देश हिंदुस्तान पर तन, मन और धन अर्थात्
सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहते हैं क्योंकि देश की आन-बान-शान की रक्षा और भविष्य
का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर है।
प्रश्नः (ग)
‘अनल और मधु के मिश्रण’ किन्हें कहा गया है? उनकी अन्य विशेषताएँ
क्या थीं?
उत्तर:
अनल और मधु के मिश्रण हम भारतीयों के पूर्वजों को कहा गया
है। वे युद्ध में आग के समान कोहराम मचाने वाले परंतु हृदय से बड़े दयालु थे। उनका
तेज़ अत्यंत प्रखर और हृदय कोमल भावों से भरा था।
(5) आज सवेरे
जब वसंत आया उपवन में चुपके-चुपके
कानों ही कानों में मैंने
उससे पूछा
“मित्र पा गए तुम तो अपने यौवन का उल्लास दुबारा
गमक उठ फिर प्राण
तुम्हारे,
फूलों-सा मन फिर मुसकाया
पर साथी
जब मेरे जीवन का पहला पहर झुलसता था लपटों में,
तुम बैठे थे बंद उशीर पटों से घिरकर।
मैं जब वर्षा की बाढ़ों में डूब-डूब कर
उतराया था
तुम हँसते थे वाटर प्रूफ़ कवचन को ओढ़े।
और शीत के पाले में जब
गलकर मेरी देह जम गई
तब बिजली के हीटर से
तुम सेंक रहे थे अपना तन-मन
जिसने झेला नहीं, खेल
क्या उसने खेला?
जो कष्टों से भागा दूर हो गया सहज जीवन के क्रम से,
उसको दे क्या दान प्रकृति की यह गतिमयता यह नव बेला।
पीड़ा के माथे पर ही
आनंद तिलक चढ़ता आया है
क्या दोगे मुझको?
मेरा यौवन मुझे दुबारा मिल न सकेगा?”
सरसों की उंगलियाँ
हिलाकर संकेतों में वह यों बोला,
मेरे भाई!
व्यर्थ प्रकृति के नियमों की यों
दो न दुहाई,
होड़ न बाँधो तुम यो मुझसे।
मुझे देखकर आज तुम्हारा मन यदि सचमुच ललचाया है
तो कृत्रिम दीवारें तोड़ो
बाहर जाओ,
खुलो, तपो, भीगो, गल जाओ
आँधी तूफ़ानों को सिर लेना सीखो
जीवन का हर दर्द सहे जो स्वीकारो हर चोट समय की
जितनी भी हलचल मचती हो, मच जाने दो
रस विष दोनों को गहरे में पच जाने दो
तभी तुम्हें भी धरती का आशीष मिलेगा
तभी तुम्हारे प्राणों में भी यह
पलाश का
फूल खिलेगा।
प्रश्नः (क)
उपवन को हरा-भरा देख कवि ने उससे क्या कहा और उससे क्या
माँगा?
उत्तर:
उपवन को हरा-भरा देखकर कवि ने उससे कहा कि मित्र! तुम्हें तो
अपने यौवन की खुशियाँ दुबारा मिल गईं। इससे तुम्हारा मन महक उठा है। कवि ने उपवन से
अपने यौवन का उल्लास माँगा।
प्रश्नः (ख)
धरती के सुख मनुष्य को कब सुलभ हो सकते हैं ?
उत्तर:
धरती
के सुख मनुष्य को तब सुलभ हो सकते हैं, जब मनुष्य सुख और दुख दोनों को समान रूप में
अपनाए और सहन करे। केवल सुखों को अपनाने और दुख से विमुख रहने पर वह धरती के सुख
नहीं पा सकता है।
प्रश्नः (ग)
मानव ने स्वयं को किन-किन कृत्रिम दीवारों में कैद कर रखा है
?
उत्तर:
मानव ने स्वयं को जिन कृत्रिम दीवारों में कैदकर रखा है, वे हैं
(6) इस समाधि में छिपी हुई है
एक राख की ढेरी।
जलकर जिसने स्वतंत्रता
की
दिव्य आरती फेरी॥
यह समाधि यह लघु समाधि, है
झाँसी की रानी की।
अंतिम लीला-स्थली यही है
लक्ष्मी मर्दानी की॥
यहीं कहीं पर बिखर गई वह
भग्न विजय-माला-सी
उसके फूल यहाँ संचित हैं
है
वह स्मृति-शाला-सी॥
सहे वार पर वार अंत तक
लड़ी वीर बाला-सी।
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर
चमक उठी ज्वाला-सी॥
बढ़ जाता है मान वीर का
रण में बलि होने से।
मूल्यवती होती सोने की
भस्म यथा सोने से॥
रानी से भी अधिक हमें अब
यहाँ समाधि है प्यारी।
यहाँ निहित है स्वतंत्रता
की
आशा की चिंगारी॥
प्रश्नः (क)
कवि किसकी समाधि की बात कर रहा है?
उत्तर:
कवि झाँसी की
रानी लक्ष्मीबाई की समाधि के बारे में बात कर रहा है। उसने रानी लक्ष्मीबाई को
मर्दानी इसलिए कहा है क योंकि रानी ने महिला होकर पुरुष वीर योद्धा की भाँति युद्ध
किया और लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की।
प्रश्नः (ख)
अंतिम लीला-स्थली किसे कहा गया है और क्यों?
उत्तर:
अंतिम
लीला-स्थली समाधि के आस-पास के उस स्थल को कहा गया है, जहाँ रानी लक्ष्मीबाई का
अंग्रेजों के साथ भीषण युद्ध हुआ था। यहीं रानी को वीरगति मिली थी। यह रानी का
अंतिम युद्ध था, इसलिए उसे अंतिम लीला-स्थली कहा गया है।
प्रश्नः (ग)
वीर का मान कब बढ़ जाता है?
उत्तर:
वीर का मान तब बढ़ जाता
है जब वह अपने देश की रक्षा के लिए युदध करते-करते वह अपना बलिदान दे देता है। उसका
यह बलिदान देशवासियों में देशभक्ति और देशभक्ति की भावना जगाते है। इससे दूसरे लोग
भी अपने देश के लिए कुछ कर गुज़रने के लिए प्रेरित हो उठते हैं।
(7) बजता है समय अधीर पथिक,
मैं नहीं सदाएँ देती हूँ
हूँ पड़ी राह से अलग,
भला
किस राही का क्या लेती हूँ?
मैं भी न जान पायी अब तक,
क्यों था मेरा निर्माण हुआ?
सूखी लकड़ी के जीवन
का
जाने सर्बस क्यों गान हुआ?
जाने किसकी दौलत हूँ मैं
अनजान, गाँठ से गिरी हुई।
जानें किसका हूँ
स्वप्न
ना जानें किस्मत किसकी फिरी हुई।
तुलसी के पत्ते चले गये
पूजोपहार बन जाने को।
चंदन के फूल गये जग में
अपना सौरभ फैलाने को।
जो दूब पड़ोसिन है मेरी,
वह भी मंदिर में जाती है।
पूजती कृषक-वधुएँ
आकर,
मिट्टी भी आदर पाती है।
बस, एक अभागिन हूँ जिसका
कोई न कभी भी आता है।
झंझा से लेकर काल-सर्प
तक
मुझको छेड़ बजाता है।
प्रश्नः (क)
बाँसुरी अब तक क्या नहीं जान पाई? वह ‘सूखी लकड़ी के जीवन का’ के
माध्यम से क्या कहना चाहती है? \
उत्तर:
बाँसुरी अब तक यह नहीं जान पाई कि इस
दुनिया में उसे क्यों बनाया गया है ? ‘सूखी लकड़ी के जीवन का’ के माध्यम से वह यह
कहना चाहती है कि बाँस से बनी बाँसुरी को जब वादक मधुर स्वर फूंककर बजाता है तो उस
सूखी लकड़ी में भी जीवन आ जाता है। वह प्राणवान हो जाती है।
प्रश्नः (ख)
बासुरी को अपनी किस्मत और तुलसी-चंदन में क्या अंतर दिखाई देता
है ?
उत्तर:
रास्ते में पड़ी बाँसुरी सोचती है कि वह न जाने किसकी अनजान दौलत
है जो किसी की गाँठ से गिर गई हूँ। मुझे उठाने वाला कोई नहीं है, जबकि तुलसी के
पत्ते पूजा बनने और चंदन के फूल अपनी महक लुटाने के लिए चले गए हैं। ऐसा बाँसुरी को
किस्मत के कारण लगता है।
प्रश्नः (ग)
इस कविता में दुख का भाव किस प्रकार व्यक्त होता
है?
उत्तर:
बाँसुरी का दुख यह है कि जंगल के अन्य सभी पेड़-पौधे यहाँ तक कि
मिट्टी भी आदर का पात्र समझी जाती है पर बाँसुरी उपेक्षित पड़ी रहती है और उसकी ओर
कोई ध्यान नहीं देता है।
(8) नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर हैं,
सूर्य चंद्र युग मुकुट, मेखला
रत्नाकर है,
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडल है,
बदीजन खग-वृंद, शेषफन
सिंहासन है
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की
हे मातृभूमि! तू सत्य ही
सगुण मूर्ति सर्वेश की;
जिसकी रज में लोट-लोटकर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल
सरक-सरक कर खड़े हुए हैं,
परमहंस सम बाल्यकाल में सब, सुख पाए,
जिसके कारण
‘धूल भरे हीरे कहलाए,
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में
हे
मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हो मोद में
निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम
है,
षट्ऋतुओं का विविध दृश्य युत अद्भुत क्रम है,
हरियाली का फर्श नहीं मखमल
से कम है,
शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चंद्रप्रकाश है
हे मातृभूमि! दिन
में तरणि, करता तम का नाश है
जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे
हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे,
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे
उसमें
मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे,
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन
जाएंगे
होकर भव-बंधन-मुक्त हम, आत्मरूप बन जाएँगे।
प्रश्नः (क)
कवि अपने देश पर क्यों बलिहारी जाता है?
उत्तर:
कवि अपने
देश पर इसलिए बलिहारी जाता है क्योंकि इस देश का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम, अतुलनीय
है। यहाँ वातावरण में चारों ओर हरियाली फैली हैं। यहाँ की नदियाँ जीवनदायिनी है तथा
सागर हमें अमूल्य संपदा प्रदान करता है।
प्रश्नः (ख)
कवि अपनी मातृभूमि के जल और वायु की क्या-क्या विशेषता बताता
है?
उत्तर:
कवि अपनी मातृभूमि के जल की विशेषता बताता है कि अत्यंत शीतल
स्वच्छ और अमृत के समान है। इसी तरह यहाँ की वायु मंद, सुगंधित और शीतलतायुक्त है
जो सारी थकान हर लेती है।
प्रश्नः (ग)
मातृभूमि को ईश्वर का साकार रूप किस आधार पर बताया गया
है?
उत्तर:
हमारी मातृभूमि ईश्वर का साकार रूप है क्योंकि सूर्य एवं चाँद
इसके मुकुट के समान तथा शेषनाग का फल इसके सिंहासन जैसा है। बादल निरंतर इसका
अभिषेक करते हैं और पक्षियों का समूह इसके यश का गुणगान करता है।
(9) सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान
जगती के मन का
खींच-खींच
निज छवि के रस से सींच-सींच
जेल कन्याएँ भोली अजान,
सागर के उर पर नाच-नाच करती है लहरें मधुरगान
प्रातः समीर से हो अधीर,
सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान
करतल गत कर नभ की विभूति
पाकर शशि से सुषमानुभूति
तारांवलि-सी मृदु दीप्तिमान,
सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान
तन पर शोभित नीला दुकूल
हैं
छिपे हृदय में भाव फूल
छूकर पल-पल उल्लसित तीर,
कुसुमावलि-सी पुलकित महान,
सागर के उर पर नाच-नाच करती है लहरें मधुरगान
संध्या से पाकर रूचि रंग
करती सी शत सुर-चाप भंग
हिलती नव तरु-दल के समान,
आकर्षित करती हुई ध्यान,
सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान
हैं कभी मुदित, हैं कभी
खिन्न,
हैं कभी मिली, हैं कभी भिन्न,
हैं एक सूत्र में बँधे प्राण
सागर के
उर पर नाच-नाच, करती हैं लहरें मधुरगान।
प्रश्नः (क)
जल कन्याएँ किन्हें कहा गया है? वे क्या कर रही
हैं?
उत्तर:
जल कन्याएँ सागर की लहरों को कहा गया है। ये जल कन्याएँ अपनी
सुंदरता से लोगों का मन अपनी ओर खींच रही हैं और सागर के हृदय पर मधुर गीत गाती फिर
रही हैं।
प्रश्नः (ख)
प्रातः कालीन वायु का लहरों पर क्या असर हुआ है? उनके क्रिया
कलाप को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
प्रातः कालीन वायु का स्पर्श पाकर लहरें
अधीर हो उठी हैं। वे खुशी-खुशी किनारों को छूकर लौट जाती हैं। दूर से आती लहरों को
देखकर ऐसा लगता है जैसे फूलों की बड़ी-सी कतार चली आ रही हैं। ये लहरें आनंदपूर्वक
सागर के हृदय पर गान कर रही हैं।
प्रश्नः (ग)
लहरों का वस्त्र कैसा है? वे हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए
क्या कर रही हैं?
उत्तर:
लहरों का वस्त्र नीला है। वे अपने हृदय में नाना
प्रकार के भाव छिपाए, मधुर गीत गाती हुई सागर के सीने पर नाचती फिर रही हैं। इस तरह
अपनी सुंदरता से लहरें हमारा ध्यान अपनी ओर खींच रही हैं।
(10) अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।
धीरे-धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब
थे
सभी मौन थे सही निहत्थे
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख करके आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे
देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौलकर चाकू मारा
छूटा
लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?
प्रश्नः (क)
रामदास के उदासी का क्या कारण था?
उत्तर: रामदास की उदासी का
कारण यह था कि उसे पता चल गया था कि उसका अंत समय आ गया है। उसे यह भी बता दिया गया
था कि उसकी हत्या कर दी जाएगी। अपनी मृत्यु को अवश्यंभावी जानकर वह बहुत उदास
था।
प्रश्नः (ख)
रामदास अपने साथ किसी को लेते-लेते क्यों रुक गया।
उत्तर:
रामदास अपने साथ किसी को लेते-लेते इसलिए रुक गया था क्योंकि उसे पता था कि सड़क पर
अकेला नहीं होगा। सड़क पर और भी बहुत से लोग होंगे जो उसे बचाने आगे आएँगे। इस तरह
उसकी हत्या नहीं होने पाएगी।
प्रश्नः (ग)
सड़क पर हत्या होने से क्या मतलब है? इससे समाज के बारे में क्या
पता चलता है?
उत्तर:
सड़क पर हत्या होने का मतलब है-हत्यारों को किसी का भय न
होना तथा शहर में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज़ न होना। इससे समाज के बारे में यह
पता चलता है कि लोग कितने संवेदनहीन हो चुके हैं। भय और आतंक के कारण उनकी संवेदना
मर गई है।
(11) आज तक मैं यह समझ नहीं पाया
कि हर साल बाढ़ में पड़ने के बाद भी
लोग
दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं जाते?
समुद्र में आता है तूफ़ान
तटवर्ती सारी बस्तियों को पोंछता
वापस लौट जाता है
और दूसरे ही दिन तट पर
फिर
बस जाते हैं गाँव –
क्यों नहीं चले जाते ये लोग कहीं और?
हर साल पड़ता
है सूखा
हरियरी की खोज में चलते हुए गौवों के खुर
धरती की फाँट में फँस-फँस
जाते हैं
फिर भी कौन इंतज़ार में आदमी
बैठा रहता है द्वार पर,
कल भी आएगी बाढ़
कल भी आएगा तूफ़ान
कल भी
पड़ेगा अकाल
आज तक मैं समझ नहीं पाया
कि जब वृक्ष पर एक भी पत्ता नहीं
होता
झड़ चुके हैं सारे पत्ते
तो सूर्य डूबते-डूबते
बहुत दूर से चीत्कार
करता
पंख पटकता
लौटता है पक्षियों का एक दल
उसी दूंठ वृक्ष के घोसलों
में
क्यों? आज तक मैं समझ नहीं पाया।
प्रश्नः (क)
दियारा के संबंध में लोगों की किस स्वाभाविक विशेषता का उल्लेख
है ? इससे क्या प्रकट होता है?
उत्तर:
दियारा अर्थात् नदी के किनारे के निचले
क्षेत्र जहाँ प्रतिवर्ष बाढ़ आती है और वहाँ की फ़सलें, धन-धान्य और घर तबाह कर
जाती है फिर भी लोग उसे छोड़कर अन्यत्र जाकर नहीं बसते हैं। इससे दियारा के प्रति
लोगों का स्वाभाविक लगाव प्रकट होता है।
प्रश्नः (ख)
तूफ़ान आने के बाद तटीय इलाकों की स्थिति कैसी हो जाती है पर
उनमें शीघ्र क्या बदलाव दिखाई देता है?
उत्तर:
तूफ़ान आने से तटीय इलाकों की
स्थिति बदहाल हो जाती है। वहाँ पेड़-पौधे घर-मकान, रोजी-रोटी के साधन सभी कुछ नष्ट
हो जाते हैं पर अगले दिन से ही वहाँ जन-जीवन सामान्य होने लगता है और फिर से सब कुछ
पहले जैसा हो जाता है।
प्रश्नः (ग)
गायों के खुर कहाँ फँस जाते हैं और क्यों?
उत्तर:
गायों के
खुर उन दरारों में फट जाते हैं जो धरती फटने से बनी हैं। भयंकर सूखे के कारण धरती
में दरारें पड़ गईं है। गाएँ
हरी-हरी घास की तलाश में इधर-उधर भटक रही थी और
उनका खुर इन दरारों में फँस गया।
(12) कितने ही कटुतम काँटे तुम मेरे पथ पर आज बिछाओ,
और अरे चाहे निष्ठुर कर
का भी धुंधला दीप बुझाओ।
किंतु नहीं मेरे पग ने पथ पर बढ़कर फिरना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है।
कहीं छुपा दो मंज़िल मेरी चारों ओर निमिर-घन
छाकर,
चाहे उसे राख कर डालो नभ से अंगारे बरसाकर,
पर मानव ने तो पग के नीचे मंज़िल रखना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है।
कब
तक ठहर सकेंगे मेरे सम्मुख ये तूफ़ान भयंकर
कब तक मुझसे लड़ा पाएगा इंद्रराज का
वज्र प्रखरतर
मानव की ही अस्थिमात्र से वज्रों ने बनना सीखा है।
मैंने बस
चलना सीखा है।
प्रश्नः (क)
मानव के सामने क्या नहीं टिक पाता और क्यों?
उत्तर:
मानव
के सामने भयंकर से भयंकर तूफ़ान भी नहीं टिक पाता है क्योंकि मनुष्य अपने अदम्य
साहस व शक्ति के बल पर निडरता पूर्वक तूफ़ान से संघर्ष करता है और उस पर विजय पाता
है।
प्रश्नः (ख)
साहसी मानव की मंजिल कहाँ रहती है और क्यों?
उत्तर:
साहसी
मनुष्य की मंजिल उसके पैरों तले रहती है। उसकी इच्छा शक्ति के सामने प्राकृतिक
आपदाएँ भी शरमा जाती हैं। वह अपनी मंजिल को अंधकार में से भी ढूँढ़कर निकाल लेता
है।
प्रश्नः (ग)
‘अस्थिमात्र से वज्र बनना’ इस पंक्ति से किस कथा की ओर संकेत
किया गया है।
उत्तर:
‘अस्थिमात्र से वज्र बनना’ इस पंक्ति से ऋषि दधीचि
द्वारा मानवता की भलाई के लिए अपनी हड्डियाँ तक दान दे देने की ओर संकेत किया गया
है। उनकी हड्डियों से बने वज्र द्वारा वृत्तासुर नामक राक्षस का वध किया गया
था।
(13) जब गीतकार मर गया, चाँद रोने आया,
चाँदनी मचलने लगी कफ़न बन जाने
को।
मलयानिल ने शव को कंधों पर उठा लिया,
वन ने भेजे चंदन-श्रीखंड जलाने
को।
सूरज बोला, यह बड़ी रोशनीवाला था,
मैं भी न जिसे भर सका कभी उजियाली
से,
रँग दिया आदमी के भीतर की दुनिया को
इस गायक ने अपने गीतों की लाली
से!
बोला बूढ़ा आकाश ध्यान जब यह धरता,
मुझ में यौवन का नया वेग जग जाता था।
इसके चिंतन में डुबकी एक लगाते ही,
तन कौन कहे, मन भी मेरा रंग जाता था।
देवों ने कहा, बड़ा सुख था इसके मन की
गहराई में डूबने और उतराने में।
माया बोली, मैं कई बार थी भूल गयी
अपने को गोपन भेद इसे बतलाने में।
योगी था, बोला सत्य, भागता मैं फिरता,
यह जाल बढ़ाये हुए दौड़ता चलता था।
जब-जब लेता यह पकड़ और हँसने लगता,
धोखा देकर मैं अपना रूप बदलता था।
मर्दो को आयीं याद बाँकपन की बातें,
बोले, जो हो, आदमी बड़ा अलबेला था।
जिस के आगे तूफ़ान अदब से झुकते हैं,
उसको भी इसने अहंकार से झेला था।
प्रश्नः (क)
गीतकार के मरने पर उसकी अंत्येष्टि में किसने क्या-क्या योगदान
दिया?
उत्तर:
गीतकार के मर जाने पर चाँद विलाप करने आया, चाँदनी उसका कफ़न बन
जाना चाहती थी। मलय पर्वत से चलने वाली शीतल हवाओं ने उसे कंधे पर उठा लिया और कवि
को जलाने के लिए जंगल ने चंदन और श्री खंड की लकड़ियाँ भेज दीं।
प्रश्नः (ख)
गीतकार के गीतों से आकाश किस तरह प्रभावित
था?
उत्तर:
गीतकार के गीतों से आकाश बहुत ही प्रभावित था। कवि(गीतकार) के गीत
सुनकर वह जवान हो जाता था। वह बाहर और भीतर से ऊर्जावान महसूस करने लगता है। कवि के
बारे में सोचते हुए आकाश उसके गुणों में खो जाता था।
प्रश्नः (ग)
मर्दो ने गीतकार की किस तरह प्रशंसा की?
उत्तर:
मर्दो ने
गीतकार की प्रशंसा करते हुए कहा कि गीतकार बड़ा ही अलबेला आदमी था। जिसके आगे
तूफ़ान भी झुकते थे उसको भी इस व्यक्ति ने गर्व के साथ झेला था। इस तरह कवि बहुत ही
सहनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति था।
(14) माँ अनपढ़ थीं
उसके लेखे
काले अच्छर भैंस बराबर
थे नागिन-से
टेढ़े-मेढ़े
नहीं याद था
उस श्लोक स्तुति का कोई भी
नहीं जानती थी
आवाहन
दुर्बल तन वृद्धावस्था का या कि विसर्जन देवी माँ का
नहीं वक्त था
ठाकुरवारी या शिवमंदिर जाने का भी
तो भी उसकी तुलसी माई
नित्य सहेज लिया करती
थीं
निश्छल करुण अश्रु गीतों में
लिपटे-गुंथे दर्द को माँ के।
अकस्मात् बीमार हुई माँ
चौका-बासन गोबर-गोंइठा ओरियाने में
सुखवन लाने-ले
जाने में
भीगी थीं सारे दिन जमकर
ऐसा चढ़ा बुखार
न उतरा अंतिम क्षण तक
झेल नहीं पाया प्रकोप
ज्वर का अतिभीषण
लकवा मारा, देह समूची सुन्न हो
गई,
गल्ले वाले घर की चाभी
पहुँच गई ग्रेजुएट भाभी के
तार चढे मखमली पर्स
में।
प्रश्नः (क)
‘काले अच्छर भैंस बराबर’ किसके लिए प्रयुक्त है और
क्यों?
उत्तर:
‘काले अच्छर भैंस बराबर’ का प्रयोग कवि ने अपनी माँ के लिए
किया है, क्योंकि उसकी माँ बिलकुल निरक्षर थी। वह अक्षर भी नहीं पहचानती थी।
प्रश्नः (ख)
‘माँ’ को मंदिर जाने का समय क्यों नहीं मिलता
था?
उत्तर:
माँ को मंदिर जाने का समय नहीं मिलता था क्योंकि वह रसोई के कामों
के अलावा गोबर के उपले बनाने, अनाज सुखाने साफ़ करने में सारा दिन व्यस्त रहती
थी।
प्रश्नः (ग)
माँ किसकी पूजा करती थी? वह उसे क्या अर्पित करती
थी?
उत्तर:
माँ तुलसी माई की पूजा करती थी। वह अपने दुखों को आँसुओं में
लपेटकर निश्छल भाव से तुलसी माई को अर्पित कर दिया करती थी।
(15) निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
अहसहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, क्या जल में बह जाते देखा है?
क्या
खाएँगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है
ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिनकी आभा पर धूल अभी तक छाई है?
रेशमी देह पर जिन
अभागिनों की अब तक रेशम क्या, साड़ी सही नहीं चढ़ पाई है।
पर तुम नगरों के लाल,
अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे,
जलता हो सारा देश,
किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चिन्ता हो भी क्यों
तुम्हें, गाँव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियाँ नहीं कम होती हैं।
धुलता न
अश्रु-बूंदों से आँखों से काजल, गालों पर की धूलियाँ नहीं नम होती हैं।
जलते हैं
ये गाँव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी,
या रक्खेगी मरघट में
भी रेशमी महल, या आँधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी,
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी
महल, या आँधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर,
दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में,
है विकल देश सारा अभाव के तापों से,
दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में।
प्रश्नः (क)
राजधानी में और ग्रामीण भारत में क्या अंतर
है?
उत्तर:
राजधानी में नाना प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं। लोग इस सुख
सुविधाओं का आनंद उठा रहे हैं जबकि दूसरी ओर ग्रामीण भारत में अनेक प्रकार के कष्ट
हैं जिन्हें भोगते हुए ग्रामीण जी रहे हैं।
प्रश्नः (ख)
किसान और रंभाओं को देखकर कवि दुखी थ्यों होता है
?
उत्तर:
कवि देखता है कि किसानों की फ़सल बाढ़ में बह गई है। फ़सल बहने से
किसान असहाय दुखी और परेशान हैं। इसी तरह ग्रामीण नवयुवतियाँ सौंदर्य की मूर्ति तो
हैं पर उनके पास पूरा तन ढंकने को वस्त्र नहीं है। यह देखकर कवि दुखी होता है।
प्रश्नः (ग)
दिल्ली वासियों की हृदयहीनता को कवि ने किस तरह उभारा
है?
उत्तर:
दिल्लीवासियों की हृदयहीनता को कवि ने उभारते हुए कहा है कि वे
ग्रामीणों के दुख के बारे में नहीं सोचते हैं। गाँव वालों को दुखमुक्त करने के बारे
में वे बिलकुल नहीं सोचते हैं। वे गाँव वालों का उपजाया अन्न खाते हैं पर उनकी
चिंता नहीं करते हैं।